पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६१

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LASS मतिराम-सतसई ४५७ आई गौने काल्हि है', सीख्यौ कहा सयान । अबहीं तें रूसन लगी, अबहीं तें पछितान ॥२६२।। जोरत सुनि सजनी बिपति, तोरत तपत समाज । नेह कियो बिन काज पुनि, तेज कियो बिन काज ॥२६३॥ लख्यो न कंत सहेट में, लखत नखत को राइ । अमल कमल सो बाल को, बदन गयो कुम्हिलाइ ॥२६४॥ तिय कों मिल्यो न प्रानपति, सजल जलद तन मैन । सजल जलद लखि कै भए, सजल जलद-से नैन ॥२६५।।X बिहँसि केलि-मंदिर गई, लख्यो न जिय को नाथ । नैन करनि तें जल बलय, गिरे एक ही साथ ।।२६६।।+ साहस करि कुंजनि गई, लख्यो न नंदकिसोर । दीपसिखा-सी थरहरी, लगें बयारि झकोर ॥२६७॥= कत न कंत आयो सखी, लाजनि बुझि सकै न। नवल बाल पलिका परी, पलक न लागत नैन ॥२६८॥- पीउ न आयो नींद कों, मूंदे लोचन बाल । पलक उघारे पलक में, आयो होइ न लाल ॥२६६।। १ ही, २ हूँ, ३ लख्यो, ४ नवल बाल को कमल से, ५ क्यों, ६ ध्यान ।

  • दे० रसराज उ० मुग्धा कलहांतरिता।

+दे० रसराज उ० परकीया कलहांतरिता । दे० रसराज उ० मुग्धा विप्रलब्धा । xदे० रसराज उ० मध्या विप्रलब्धा । + दे० रसराज उ० प्रौढ़ा विप्रलब्धा । =दे० रसराज उ० परकीय विप्रलब्धा । -दे० रसराज उ० मुग्धा उत्कंठिता । ६ दे० रसराज उ० प्रौढ़ा उत्कंठिता।