पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४५८ मतिराम-ग्रंथावली कंत बाट लखि गेह कों, कुंज देहली' आइ। ऐहैं पीव बिचारियो, नारि फेरि फिर जाइ ॥२०७॥* लखत बाट पिय की तिया, अँगरानी अंग मोरि । पौढि रही पलिका मनो, डारी मदन मरोरि ॥२७१॥ डीठि बचाइ सखीनि की, केलि-भौन में जाइ। पौढ़ि परै पलिका पलक, पलक अंग अधिकाइ ॥२७२॥ सब सिंगार संदरि सजै, बैठी सेज बिछाइ। भयौ द्रौपदी को बसन, बासर नहिंन बिहाइ ॥२७३॥ मनभावन के मिलन के, करै मनोरथ नारि। धरै पौन के सामुहैं, दिया भौन को बारि ॥२७४॥x पिय मिलाप के हेत तिय, सजे उछाह सिंगार। दग कमलनि के द्वार में, बाँधे बंदनवार ॥२७५ ॥ अली चली नवलाहि लै. पिय पै साजि सिंगार। ज्यों मतंग अँड़दार कों, लियै जात गँड़दार ॥२७६॥= जोबन मद गज मंद गति, चली बाल पति गेह। पगनि लाज आँदू परी, चढ़यो महावत नेह ॥२७७॥- कम्प १ देहरी, २ दीठि, ३ रही छिन सेज तिय अति आनंद, ४ नहीं, ५ बिताइ, ६ मनमोहन, ७ को।

  • दे० रसराज उ० परकीया उत्कंठिता।

दे० रसराज उ० मुग्धा बासकसज्जा। दे० रसराज उ० प्रौढ़ा बासकसज्जा । xदे० रसराज उ० परकीया बासकसज्जा । +दे० रसराज उ० बासकसज्जा। =दे० रसराज उ० मुग्धा अभिसारिका । -दे० रसराज उ० मध्या अभिसारिका।