पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

THESEARCHAURained मतिराम-सतसई ४५९ सजि सिंगार सेजहि चली, बाल प्रानपति' प्रान । चढत अटारी की सिढी, भई कोस परिमान ॥२७८।।* स्याम बसन में स्याम निसि, दुरै न तिय की देह। पहँचाई चहुँ ओर घिरि ,भौंर भीर पिय गेह ।।२७९॥ मलिन करी छबि जोन्ह की, तन छबि सों बलि जाँउ । क्यौं जैहै पिय पै सखी, लखि जैहै सब गाँउ ॥२८०॥ जेठ मास की दुपहरी, चली बाल पिय-भौन । आगि लपट तीखन लुवै, भए मलय के पौन ॥२८१॥x नागरि सकल सिंगार करि, चली प्रानपियरे पास । बाढ़ि चली बिहसनि मनो, सोभा सहज सुबास ॥२८२॥+ क्यों सहिहै सुकुमारि वह, पहिलो बिरह गुपाल । जब वाके चित हित भयो, चलन लगे तब लाल ॥२८३॥ ॥ अबहीं तो मिलि मोहि सखि, चलत आजु ब्रजराज । अँसूवनि राखति रोकि तिय, जियहि निकासति लाज ॥२८४॥ फली नागरि कमलिनी, उड़ि गए मित्र मलिंद । आयो मित्र बिदेस तें, भयों सू दिन आनंद ॥२८॥- । १ जहाँ, २ मिलि, ३ प्रानपति, ४ बारिधि बीचि बिलास ।

  • दे० रसराज उ० प्रौढ़ा अभिसारिका ।

दे० रसराज उ० परकीया कृष्णाभिसारिका तथा ललितललाम उ० प्रहर्षण। दे० रसराज उ० परकीया शुक्लाभिसारिका । xदे० रसराज उ० दिवाभिसारिका । +दे० रसराज उ० गणिकाभिसारिका । =दे० रसराज उ० मुग्धा प्रवत्स्यत्प्रेयसी । -दे० रसराज उ० गणिका आगतपतिका।