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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६५

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४६१
मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई ४६१ या में कौन सयान है, मोहनलाल सुजान। आपु करत अपराध हो, आपुहि पुनि अभिमान ॥२९५॥* पिय मिलाप को सुख सखी, कह्यो न जाइ अनूप , सौतू कतौ सपनो भयो, सपनो सौतुक रूप ॥२९६॥ चित्रह में सखि जाहि लखि, होत अनंत अनंद । नैन कुबलयन सों कहूँ, सो लखिबौरे ब्रजचंद ॥२९७॥ वाको मन लीने लला, बोलो बोल रसाल । झुकति तनक वह बात में, कनक बेलि वह बाल ।।२९८।। सखी सलोनी देह में, सजे सिंगार अनेक । कजरारी अँखियानि में, भूल्यो काजर एक ॥२९९॥x सरद चाँदनी में प्रगट, होत न तिय के अंग। सुनत मंज मंजीर अब, सखी न छोड़ ति संग ।।३००॥+ सखी सरस रस केलि में, आपून यों सूधि जाति। कंत संग हेमंत की, छिन-सी राति सिरात ॥३०१॥ लाल तिहारे बिरह तें, माह मास की राति । करि कपूर की कीच सो, सखी समीपहि जाति ॥३०२।। कहा जनावति चातुरी, कहा चढ़ावति भौंह । अधनिकरे अखरानि सों, सोहैं कीजै सौंह ॥३०३॥= १ चित्रहु में जाके लखे, २ सपने हूँ कबहूँ सखी मोहिं मिलिहैं, ३ तिया की देह, ४ धुनि । छं० नं० २९८ बात=१ कथन, २ वायु ।

  • दे० रसराज उ० मानी नायक ।

दे० रसराज उ० स्वप्नदर्शन । दे० रसराज उ० चित्रदर्शन । xदे० रसराज उ० मंडन । +दे० ललितललाम उ० उन्मीलित । =दे० रसराज उ० स्वरभंग। MineDaindin