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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६६

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४६२
मतिराम-ग्रंथावली

४६२ मतिराम-ग्रंथावली masomiasiseminary GS a लाल तिहारें नेक ही, नैन तिहारे तीर । वाके कंचुक कलित कुच, काँपत जोध अधीर ॥३०४॥ बाल रही इकटक निरखि, लाल बदन अरबिंदु । सियराई अँखियन परी, पियराई मुख इंदु ॥३०॥* पिय समीप को सुख सखी, कहैं देत ये बैन । अबल अंग, निरबल बचन, नवल सुनींदे नैन ॥३०६॥ खाटे फल आगे धरें, सखी आनि मुसिक्याइ । पिय समीप, प्यारी पिया,रही सकूचि सिर नाय ॥३०७॥ पिय आयो परदेस तें, बहुतै द्योस बिताइ । सखी उठाई पास तें, झूठे ही' जमुहाइ ॥३०॥ पासे गर्भवती तिया, सिथिल हाथ ढरकाइ। हसत लाल लोचन लखें, लोचन रही नवाइ ॥३०९॥ ध्यान करत नंदलाल कौ, नए नेह में बाम । तनु बूड़त रँग पीत मैं, मन बूड़त रँग स्याम ॥३१०॥ पिय आयो परदेस तें, हिय में आयो प्रान ।। मिलत बिरहिनी के भयो, छिन जनु जुग परिमान ॥३११॥ कहा भयो मेरी हितू, हो तुम सखी अनेक । सपने मिलवत नाथ कै, नींद आपनी एक ॥३१२॥ - १ साँझहि तें। छं० नं० ३०९ पासे सिथिल हाथ ढरकाइ =शिथिल हाथों के फंदे को छुड़ा कर । छं० नं० ३१० रँग पीत मैं पीतांबर के रंग में अर्थात् पीले रंग में अथवा पीतम-प्रियतम के रंग में । छं० नं० ३१२ भावार्थ- नायिका कहती है कि यद्यपि मेरा हित चाहने वाली तुम लोग बहुत-सी सखियाँ हो परंतु सो जाने पर, स्वप्न में नायक से मिलाकर जो मेरा हित सखी नींद करती है वह तुम कोई नहीं कर पाती हो।

  • दे० रसराज।

दे० रसराज उ० जु भा। SMARRIAng HASANCHI