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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६८

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४६४
मतिराम-ग्रंथावली

४६४ मतिराम-ग्रंथावली मैं रसाल की मंजरी, क्यौं न करी करतार । सुंदर स्रौन समीप जौ, राखै नंदकुमार ॥३२२॥ बिकल लाल को बाल हूँ, क्यों न बिलोकति आनि । बोलि कोकिलनि सों कहै, बोल तिहारे जानि ॥३२३॥* सुजस ओज सों साह सुत, सिवा सूर सिरदार। सरद-चंद आतप कियो, सुचि आतप इकबार ॥३२४॥ पिसून बचन सज्जन चितै, सके न फोरि न फारि। कहा करे लगि तोय में, तुपक तीर तरवारि ॥३२५॥ निहचे नखत निहारियत, नथुनी मुकत प्रकास। कैसें करि पावै कहौ, नीचन नाक-निवास ॥३२६॥ खेत निहारो धान को, यों बूझति मुसिक्याइ । यही हमारो पिय' कहौ, सघन ज्वारि दरसाइ ॥३२७॥ राखै भरि दुपहर सखी, सघन छाँह में गोइ। कहै घाम को क्वार कौ, ज्वार खेत जुन होइ ॥३२८।। भौंह कमान कटाछ सर, समर भूमि बिच लैन। लाज तजे हूँ दुहुँनि के, सजल सुभट से नैन ॥३२९॥x अरुन बसन निकरी पहरि, पावस मैं छबि खानि । इंद्र गोप-सी गोपिका, गोप इंदु लखि आनि ॥३३०॥ १.है, २ सजल, ३ सूर। छं० नं० ३२४ इस दोहे में शाहजी भोंसला के सुपुत्र छत्रपति महा- राज शिवाजी का यश वर्णित है । मतिरामजी के बनाए और भी कई ऐसे हैं, जिनमें शिवाजी की प्रशंसा है । संभवतः मतिराम शिवाजी के आश्रित कवि थे।

  • दे० रसराज उ० प्रलाप ।

दे० ललितललाम उ० प्रतिवस्तूपमा।

  • दे० रसराज उ० वचन विदग्धा ।

xदे० ललितललाम उ० पूर्णोपमा ।