पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४६७

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मतिराम-ग्रंथावली

मतिराम-सतसई ४६३ कंप प्रसेद बढ़ चढ़, भौंह मनो भव-चाप । अपने पिय सों जानियत, सपने करति बिलाप ॥३१३॥ प्यारी की मुसिक्यानि-सी, सरद-जोन्ह तू है न । वह नैननि सीतल करै, तू कत जारति नैन ॥३१४॥ अली चली कहु कौन पै, बड़े कौन के भाग। उलटयो कंचक कुचन पर, कहे देत अनुराग ॥३१५॥ सकूचि न रहियै साँवरे,सुनि गरबीले बोल। चढ़ति भौंह बिकसत नयन, बिहसत गोल कपोल ॥३१६।। मनभावन को भाँवती, भेंटति रस उतकंठ । बाँही छटै न कंठ तें, नाहीं छटै न कंठ ॥३१७॥ बिरी अधर अंजन नयन, मिहिदी फ्ग अरु पानि । तन कंचन के आभरन, नीठि परति पहिचानि ॥३१८॥x कहा काज कुलकानि सों, लोक-लाज किन जाइ । कुंजबिहारी कुंज में, कहूँ मिलें मुसिकाइ ॥३१९॥ लखी अपूरब बाल मैं, वाकी दसा बनाइ । हियरें है सुधि रावरी, हियरो गयो हिराइ ॥३२०॥ सरद-चंद की चाँदनी, जारि डार किन मोहि । वा मुख की मुसिक्यानि-सी, क्यों हूँ कहौं न तोहि ॥३२१॥- । RUARi

  • दे० रसराज उ० विभ्रम-हाव ।

दि० रसराज उ० किलकिंचित्-हाव । दे० रसराज। x दे० रसराज उ० ललित-हाव तथा ललितललाम उ० अनुगुन । +दे० रसराज उ० चिंता। =दे० ललितललाम उ० विशेष । -दे० रसराज उ० गुण-कथन । meaning ion-