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मतिराम-ग्रंथावाली
सोइ संग सुख जागि दुख, लहि समुझौ निरधार ।
छीन पुन्य सुरलोक तें, लेत अवनि अवतार ॥३६१॥*
तनु आगे की चलतु है, मन वाही मग लीन ।
सलिल सोत में ज्यों चपल, चलत चढ़ाऊ मीन ॥३६२॥
प्रतिबिंबित तो बिंब में, भूतल भयो कलंक।
निज निरमलता दोष यह, मन में मानि मयंक ॥३६३॥
तिहिं पुरान नव द्वै पढे, जिहिं जानी यह बात ।
जो पूरान सो नव सदा, नव पुरान है जात ॥३६४॥
सपने में सपनो समुझि, होति दूरि ज्यों संक।
संक छोड़ि संसार की, रही जानि निरसंक ॥३६५॥
तिय हिय आनँद बढ़त हूँ, पर न प्रानप्रिय पेखि ।
बिन देखत को दुख परै, दीन दृगनि में देखि ॥३६६।।
लिखति अवनितल चरन से बिहसत बिमल कपोल ।
अधनिकरे मुख इंदु तें, अमृत-बिंदु ते बोल ॥३६७।।
उमगी उर आनंद की, लहरि छहरि दृग राह ।
बूड़ी लाज-जहाज लों, नेह-नीर-निधि माह ॥३६८।।
हौं मन मोहन के लखति, हों न आपुनी बाउ।
करत नैन नंदलाल के, हँसत हेरि उर गाउ ॥३६९॥
बसत रहत मतिराम निसि, द्यौस काम अभिराम।
इंदीबर छबि दगनि में, इंदीबर छबि स्याम ॥३७०॥
ज्वलित ज्वाल-सी जोन्ह इह, डारति अंग उलीचि।
भई पियूष मरीचि की, मोकों मरिच मरीचि ॥३७१॥
। छं० नं० ३६४ जो पुराना है वह सदा नया है और जो नया है वह
पुराना हो जाता है-यह बात जो कोई समझता है उसने अठारहों पुरान
(नव द्वै) पढ़ लिए हैं।
- दे० ललितललाम उ० स्मरण ।
fदे० ललितललाम उ० लेस ।