पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४७३

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मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई लोक प्रसून पराग तें, लखत पिंजरनि भग। भए चबेली के बिरह, पीत रंग सब अंग ॥३७२॥ मानत लाज लगाम नहि, नेक न गहत मरोर। होत तोहि लखि बाल के, दग तुरंग मुंह जोर ॥३७३॥* सघन स्याम कादंबिनी, राख्यो रोकि अकास । अति संकट पावत नहीं, जिय हिय में अवकास ॥३७४॥ हियें बसत, मुख हसत हौ, हमकों करत निहाल । घट-घट व्यापी ब्रह्म तुम, प्रकट भए नँदलाल ॥३७५॥ बरनत साँच असंग कै, तुमकों बेद गुपाल। हिए हमारे बसत हो, पीर न पावत लाल ॥३७६।। चढ़े उरोज पहार ए, उर उनके अठिलाहिं। तो तन नित लाली चढ़े, ललित लाल पियराहिं ॥३७७॥ कुच कठोर पाषान तें, क्यों न करें उर पीर। बड़े नरम जग नैन कत, होत विषम बिष-तीर ॥३७८।। सखी तिहारी साँच यह, दीपसिखा-सी देह । दिन दीपति पियराति है, अधिक राति रति नेह ॥३७९।। दरपन में निज रूप लखि, नैननि मोद उमंग। पिय मुख पिय बसकरन कों, बढ़यो गरब को रंग ॥३८०॥ निज पाइनि बलि आइ कै, तो घर बाइनि देइ । जाति बाल निज गेह के, उर उछाह दृग सेइ ॥३८१॥ तो तन सुबरन बरन है, कुटिल स्याम मन माँह । सखि सनेह कैसें रहै, छवन न पैयत छाँह ॥३८२॥ छं० नं० ३७४ कादंविनी बिजली ।

  • दे० ललितललाम उ० तृतीय विभावना ।

+दे० ललितललाम उ० हेतु ।