पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४७०
मतिराम-ग्रंथावली

४७० मतिराम-ग्रंथावली - । तिय हिय में पिय इंदु मुख, निसि-दिन करत प्रकास। सीखि सखिनि की छाँह लों, नेक न पावति बास ॥४८३॥ नैक ओट करि गिरि धरौ, लसत सकंप गुबिंद । ब्रज बोरत अब इंद्र लौं, मह तोरो मुख-इदु ॥३८४॥ करबर पर गिरिबर धरै, ललित लाल ललचाइ। जाके चितवत चखनि कुच, सो सकुचति मुसिक्याइ ॥३८॥ हारे बरषत बारि अरु, तन दीपति अभिराम । निदरे सब घनस्याम तू, भाँति-भाँति घनस्याम ॥३८६॥ छाती कुच कुंकुमनि की, छाप करी जिहिं बाल। ताको डर मन में नहीं, मिलत मोहिं नँदलाल ॥३८७॥ नैन-मीन वह बाल के, लाज-जाल परि आनि । पियत रहत तो बदन की, सुधा मधुर मुसिक्यानि ॥३८८॥ मेरे दृग बारिद बृथा, बरषत बारि प्रबाह । उठत न अंकुर नेह को, तो उर ऊसर माँह ॥* राधा चरन सरोज' नख, इद्र किए ब्रजचंद । मोर मुकुट चंद्र कनि तूं, चख चकोर आनंद ॥३९०॥ सुखद साधुजन को सदा, गजमुख दाँनि उदार। सेवनीय सब जगत को, जग मा बाप कुमार ॥३९१॥ मदरव' मत्त मिलिंद गन, गान मुदित गन नाथ ।। सुमिरत कबि मतिराम के, सिद्धि-रिद्धि-निधिहाथ ॥३९२॥ अंग ललित सित रंग पट, अंगराग अवतंस । हंसवाहिनी कीजिय, बाहन मेरो हंस ॥३९३॥ १ मदरस । छं० नं० ३९३ सतस्वती की वंदना है ।

  • दे० ललितललाम उ० अवज्ञा ।

+दे० ललितललाम मंगलाचरण। दे० ललितललाम उ० वंदन