पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४८६

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मतिराम-ग्रंथावली


थकी सुरत बिपरीत में, लियो बिजन कर बाल । लोचन रही छिपाइ कै, लख्यो हसत मुख लाल ॥४९५॥ भोर होत पिय कौ लख्यो, छोड्यो चहत समीप । बिधु-मुख लोचन कमल से, तनु दीपति तनु दीप ॥४९६॥ परै न धुनि सुनि सखिनि कों, लाजनि होति अधीर। कर कमलनि सों गहि रहै, सुरत मुखर मंजीर ॥४९७॥ बाल सुरत रस रीति में, गही लाज अरु मैन । करनि बिरल अँगुरीनि करि, मूंदति नायक नैन ॥४९८।। लाज मैन दुहुँ बिच परी, सुरत समैं मुसिक्याइ । कमल चलावै करनि गहि, दीप समीप बचाइ ॥४९९।। रति बिपरीत प्रस्वेदकन, पिय को सींचति बाम । मनो प्रौढ़ पुन्नाग के, मुकुलनि पूजति काम ॥५००॥ राजत अरुन सरोज हैं, मानहु रँगे कुसुंभ । जोबन मद गज कुंभ के, सात कुंभ से कुंभ ॥५०१॥ ऊँची स्वासनि सौंपिऎ, सुरत अंत मुसिक्याइ । पुनि पीतम के मैन की, दीनी आगि जगाइ ॥५०२॥ मनो मैन के निधि कलस, तेरे तरुनि उरोज । चाहत जे तिय पै इन्है, बातनि हनत मनोज ॥५०३॥ पल्लव पग, कर अधर हैं, फल उरोज, नख फल । भौंर भीर बर बार हैं, बाल बेलि के तूल ।।५०४।। नख-गाँसी, सर-आँगुरी, कर-पग चारु तुनीर । दसों दिसनि जिन बरजि ते, पवर पंचसर बीर ॥५०५॥ ज्वाल जाल बिज्जुलि छटा, घटा धूम अनुहारि । बिरहिनि जारनि को मनो, लाई मदन दँवारि ॥५०६।। छं० नं० ५०० पुन्नाग मुकुल अधखिले सफ़ेद कमल । छं० नं० ५०१ सातकुंभ =आनंदराशि । छं० नं० ५.०५ पवर-प्रवर=श्रेष्ठ ।