पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४८५

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मतिराम-सतसई ४८१ रचे बिरंचि बनाइ के, तेरे ईस उरोज। तिनके पूजन कों किए, हरि के हाथ सरोज ॥४८३॥ बदन इंदु तेरो अली, दृग अरबिंद अनूप । तिनमें निसि बासर सदा, बसत इंदिरा रूप ॥४८४॥ तो मुख मंजुल हास मृदु, मदन मोद कौ मूर। पिय नैननि सीतल करत, है कपूर को चूर ॥४८५।। तेरे आनँद चंद कौ, मधुर मंद मदु हास। मेरो जानि मनोज कौ, कीरति पुंज प्रकास ॥४८६।। रची बिरंचि बनाइ तू, सुबरनमय बर बाल । बढ़े जोति जौ तो मिले, इंदु नील रुचि लाल ॥४८७।। बिमल बाम के बदन में, राजत ओठ रसाल। मनो सरद बिधू बिंब मैं, लसत बिबफल लाल ॥४८८॥ लसत मुकुत रुचि लाल की, मेरे ओठनि सेइ । अति अद्भुत यह बात पुनि, लाल मुकुत रुचि लेइ ॥४८९॥ अली तिहारे अधर में, सूधा भोग की साज। द्विजराजनि जुत न्योतिए, लाल बदन दुजराज ॥४९०॥ दुहुँ दिसि जघन नितंब कुच, बँचत है निधि सार। छीजै क्यों न मयंक-मुखि, ललित लंक सूकुमार ॥४९१। क्यों न लहै सूख भोग कों, ललित बाल के साथ। नीवी नीवी मदन की, परी नाह के हाथ ॥४९२।। कर सरोज सो गहि रही, पिय कर गहत उरोज । लाल प्रबल मन में भई, मन में सबल मनोज ॥४९३॥ बैठि रहै, रोवै, हँस, आतुर उतरि उताल । प्रथम सुरति बिपरीति की, रीति न जानत बाल ॥४९४॥ छं० नं० ४९० द्विजराजनि जुत=१ ब्राह्मणों समेत, २ दाँत की पंक्तियों समेत । दुजराज= १ चंद्रमा, २ मुख, ३ कृष्ण। छं० नं०४९२ नीवी=नारा । नीवी=मूल, नीव ।