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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४९१

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मतिराम-सतसई ४८७ चाहत फल तेरो मिलन, निसि-बासर वह बाल । कूच सिव-पूजति, नैन जल, बुंद मुकतमय माल ॥५४९।। तरुनि अरुनि एडीनि के, किरन समूह उदोति । बेनी मंडन मुकत के, पुंज गुंज दुति होति ॥५५०।।* लाल बदन लखि बाल के, कुचनि कंप रुचि होति। चपल होत चकवा मनो, चाहि चंद की जोति ॥५५१॥ गयो महाउर छटि यह, रह्यो सहज इक अंग। फिरि-फिरि झाँवति है कहा, रुचिर चरन के अंग ॥५५२।। लसत कोकनद करनि में, यों मिहदी के दाग। ओस बिंदु पर कै मिटयो, मनो पल्लवनि राग ॥५५३।। सूनि इत दै मन मानिनी, बिन अपराध रिसानि । नेह जनावन' को महा, दीप जोति उर आनि ॥५५४॥ सूनि मानिनि अपराध बिन, कहा तजति दग बारि। सुसि बासर यह भानिय, डारै राग पखारि ॥५५५।। बैठयो ओज जगाइ के, मन सिंहासन मारु । मनो छपाकर छत्र छबि, किरने चाँवरु चारु ॥५५६।। हसनि जोन्ह तेरी लखें, सुनियै नंदकिसोर। वाके नैननि होत हैं, कुबलय किधों चकोर ॥५५७।। १ जरावन। छं० नं० ५५२ झाँवति=रगड़-रगड़कर धोती है । छं० नं० ५५५ भावार्थ-हे मानिनी आँसू मत बहाओ। याद रक्खो अश्रु-जल राग (१ रंग, २ अनुराग) को धो डालता है अर्थात् मान-रुदन से अनुराग नष्ट हो जायगा। छं० नं० ५५६ चाँवरू=चँवर ।

  • दे० रसराज उ० नायिका।

दे० रसराज उ० कंप।

  • दे० रसराज उ० मानवती।