मंडित मृदु मुसिक्यानि दुति, देखत हरत कलेस । ललित लाल तेरो बदन, तिय लोचन तारेस ॥५५८।। रह्यो हारि बिपरीति में, पिय नैननि में आइ। चंदमुखी सींचति मनो, सुधा-कलस-कुच नाइ ॥५५९ ॥ सखी सबै सिंगार सुभ, सजि संदरि के अंग। केलि भौन पहुँचाइ के, फिरी लाज के रंग ॥५६०।। नीबी खोलनि को गही, पिय अनुराग निखोटि । हरष नयन जलमय बसन, कियो लाज निज ओटि ॥५६१।। आँसु छपा के हरष के, सजनी भौंह चढ़ाइ । कुच कंचुक रोमंच कौ, क्यों न दुरायो जाइ ॥५६२।। व छपाइ भूषननि सों, आए गात छपाइ । भए चीन्ह उत छपारत, ए नहिं जात छपाइ ॥५६३॥ रहत नहीं मो जीव यह, चलत तिहारे संग । याकों नीकें राखियो, पिय बसाइ निज' अंग ॥५६४॥ डीठि रूप, स्रुति बचन, तनु, परस सुखद दिन-राति। जीभ अधर-रस, नासिका, मुख-सुबास न अघाति ॥५६॥ परसत तिय के करनि ते, चल्यो पिघिल नवनीति । चलनहार परदेस कों, कियो न पुनि मन मीत ॥५६६॥ कहा भयो जो सुरतु मैं, फले रूख बिसाल । कलकंठी सुख लहति है, प्रफुलित पाइ रसाल ॥५६७॥ कलकंठी तो नाम हो, रही मैन सब काल । पाइ प्रसाद रसाल कौ, बोलनि लगी रसाल ॥५६८।। भौंर भाँवरे भरत हैं, कोकिल कुल मँडरात । या रसाल की मंजरी, सौरभ सुभ सरसात ॥५६९ ॥ छं० नं० ५५८ तारेस =चंद्रमा। छं० नं० ५६५ सुति=कान । छं० नं० ५६८ रसाल रसमय, रसराज कृष्ण ।
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