पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४९७

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४९३
मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई ४९३ पूरति मन की लालसा, जगन जगति गुन माथ । सुर नर पल्लव अरुन रुचि, भोगनाथ के हाथ ॥६१२॥ कलपद्रुम पल्लव भयो, तू अति दानि निदान । भोगनाथ नर नाथ के, हाथ साथ पढ़ि दान ॥६१३॥ लाल भाल जावक लगे, उठे रसिक सिरताज । सौति सखी सुंदर दगनि, रोस हास अरु लाज ॥१४॥ लगे निसा अभिसार में, कंटक तिय के पाइ। अजों न सरुहै निठुर तुम, भए और ही भाइ ॥६१५॥ मो नैननि नीकी लगै, रही लपट यह भाल । तनक रँगी यह पाग अब, लाल करै सब लाल ॥६१६॥ लाल तिहारे चलन की, सूनी बाल यह बात। सरद नदी के सोत लौं, प्रतिदिन सूखति गात ॥६१७॥ कियो प्यार मो पर प्रगट, मैं लीनो धरि सीस। पिय प्यारी के नाम यह, दियो मोहिं बकसीस ॥६१८॥ तुरतहिं गयो बिलाइ के, हत्यो परम अभिराम । नाह रावरे नेह यह, भए गंधरब गाम ॥६१९॥ हिय अनुराग रँगे लला, वे कछ और अमोल । ओठनि ही के रँग भए, रँगि-रॅगि बोलत बोल ॥६२०॥ पगी प्रेम नँदलाल के, हमैं न भावत जोग । मधूप राजपद पाइ कै, भीख न माँगत लोग ॥६२१॥* छोड़ि नेह नंदलाल कौ, हम नहिं चाहति जोग। रंग-बाति क्यों लेत हैं, रतन-पारखी लोग ॥६२२॥ छं० नं० ३२२ बाति=वति । रंग-बाति=सुगंधित द्रव्य की बनी बत्ती जिससे गात्रानुलेपन किया जाता है।

  • दे० रसराज।