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मतिराम-ग्रंथावली

४९४ मतिराम-ग्रंथावली भोगनाथ नर नाथ के, गुन गन बिमल बिसाल । भिच्छुक सेवति पानि हैं, पग सेवत महिपाल ॥६२३॥ अदभुत गावत जगत सब, भोगनाथ गुन गाथ। भूमिपाल सेवत चरन, भिच्छुक सेवत हाथ ,।६२४॥ एक द्यौस की औधि पिय, अति साहस आरंभ । मन सों कहु बरि जात क्यों, भुजनि जलधि को अंभ ॥६२५॥ हरद बरन ते अधिक बढ़ि, सरद होत वह मित्र। सरद जोन्ह में मानिनी, दरप न आवत चित्र ।।६२६॥ जौ वियोग बड़वागि की, ज्वाल न नेक जरयो न । सो सागर अनुराग को, सूखति जानि परयो न ॥६२७॥ ज्यों-ज्यों बिषम बियोग की, अनल ज्वाल अधिकाइ। त्यों-त्यों तिय की देह में, नेह उठत उफिनाइ ॥६२८॥ बड़वानल पर बढ़ति है, बिरह ताप तिय अंग । अति अद्भ त अधिकाति है, प्रेम पयोधि तरंग ॥६२६।। वहै सबै अनुनय सहित, मधुर बचन चित चाउ । क्यों राखे अब रोकि सखि, फूटयो प्रेम तलाउ ॥६३०।। अति उतंग उरजनि लसत, चपल मुकत बर हार । मनो मेरु बिब सृग ते, गिरत गंग जुग धार ॥६३१॥ सरस बाल को मन लला, पारावार अनप । नीरस मानसरोवरो, मारवार के रूप ॥६३२॥ चढ़त सुन्यो नहिं स्याम में, और रंग अरु बाल । अधर राग सों तें रँगे, अदभुत तें नंदलाल ॥६३३॥ एक भए मन दुहुनि के, छटै न किये उपाउ। कहौं सिंधु संभेद कौ, कोऊ न सकत छुड़ाइ॥६३४॥ । छं० २० ६२६ हरद बरन = पीला । छं० नं० ६३३ अधर राग =ओठ के रंग-लाल अर्थात् प्रेम । NAGAR