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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/५००

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मतिराम-ग्रंथावली

भोगनाथ मुख-चंद की, ओर लखत बरजोर ।
करौं कौन बिधि मान ए, लोचन होत चकोर ॥६४६।।
अंग करत परिरंभ में, सुधा समुद्र बिनोद ।
सुरत अंत हूँ पाइयै, सुरत आदि को मोद ॥६४७॥
अँसुवनि के परबाह मैं, अति बूढ़िबें डराति ।
कहा करै नैनानि कों, नींद नहीं नियराति ॥६४८।।
अनल ज्वाल-सी लगति है, बालपने मैं बाल ।
जग जारन कों जानियत, जोबन में जंजाल ॥६४९॥
पलक-पलक लागे बिना, क्यों करि दृगनि बिनोद ।
सोवन देत न सरद में, बिकच कुमुद आमोद ॥६५०।।
तेरो सखी सुहाग बर, जानत हैं सब लोक ।
होत चरन के परस पिय, प्रफुलित सुमन असोक ॥६५१॥
प्रीतम पिया पियाइ के, सुख मुख सुधा अनूप ।
पुलक मुकुल केसर पटल, करि केसरि अनुरूप ॥६५२॥
पिय के मन मनभावती, और बात नहिं फल।
कुच परिरंभन सों तरुनि, करि कुरबक तरु तूल ॥६५३।।
करि चख चारु चितौनि सों, सुमन कलित अनुकल ।
तरुन तिलोकी तिलक कौ, तरुनि तिलक तर तूल ॥६५४॥
चितवनि कुच परिरंभ मुख, सिद्धचरन हति केलि ।
कियो तिलक कर बकनिलित, लाल बकुल कंकेलि ॥६५५॥
होत जगत में सुजन को, दुरजन रोकनहार।
केतक, कमल गुलाब के, कंटकमय परिहार ॥६५६॥
कछ न गनति दुरजननि लखि, तोहि दृगनि सुख देति। .
निवरि कंटकनि मधुकरी, रस गुलाब की लेति ॥६५७॥


छं० नं० ६४६ बरजोर=जबर्दस्ती। छं० नं० ६५६ परिहार=रोक।