पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४९९

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मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई ४९५ हरनि रूप बिरहीनि कौ, जलद जाल बगराइ । बाँधि-बाँधि बाननि बधत, मार-बधक सम आइ ।।६३५।। प्रफूली सुमन रसाल के, कंध बिटप भज मेलि । बात निवारी बिरह की, फल निवारी बेलि ॥६३६।। निज स्वरूप प्रभु देत हैं, साँच कहत मुनि गोत । भोगनाथ की रीझ में, भोगनाथ कबि होत ॥६३७।। सरल बान जाने कहा, प्रान हरन की बात । बंक भयंकर धनुष कौ, गुन सिखवत उतपात ॥६३८।। कियो भोग सपने रमन, परम मुग्ध मन बाल । सेतूक देति उराहनो, लई अंक भरि लाल ॥६३९।। दियो कान्ह निज कान तें, तुम गुलाब को गुच्छ ।। गुरुजन में अवतंस करि, फिरति लाल करि तुच्छ ।।६४०।। सखी सिखावन रावरे, कहो कहा अब होइ। मोहन तन पानिप गई, लाज दगनि की धोइ ॥६४१॥ लाज गहै नींदहिं लहै, निसि-दिन दहै न देह । सुनौ साँवरे रावरे, तहाँ न दीजै नेह ॥६४२।। चढ़ी अटारी बाम वह, कियो प्रनाम निखोट । तरनि किरनि तें दुगनि कों, कर सरोज करि ओट ॥६४३।।* कढ़त पियूषहु ते मधुर, मुख सरसुति के सोत । भोगनाथ नर नाथ के, साथ बसें कबि होत ॥६४४।। दिन हू मैं अति जगमगै, बाल बदन बिधु कांति। लखौ लाल या संधि मैं, उदै सैल की भाँति ॥६४५।। छं० नं० ६३५ बधक ब्याधा । छं० नं० ६३८ गुन-गुण रस्सी, डोरी । छ० नं० ६४० अवतंस भूषण। छं० नं० ६४५ संधि संधि काल-दिन और रात के मिलने का समय । उदै सैल =उदयाचल।

  • दे० रसराज उ० क्रियाविदग्धा ।