उन्माद, व्याधि और जड़ता हैं। तेंतीस व्यभिचारी भावों का वर्णन रसराज में नहीं है।
(१) वचनों की रचना से अपने विवाहित पति के प्रति कोप प्रकट करनेवाली मध्या और प्रौढ़ा स्वकीया नायिका धीरा के नाम से विख्यात है। जब वचनों की रचना कठोरता लिए होती है, तो नायिका की संज्ञा अधीरा मानी गई है। जिसमें धीरा और अधीरा दोनो के गुण मौजूद हों, उसे धीराधीरा कहते हैं। मध्याधीरा पति की आँखों में अन्यत्र रात्रि जागरण के कारण उत्पन्न लाली देखकर उससे कहती है—
"मनहूँ की जानी प्रानप्यारे 'मतिराम' यह,
नैनन ही माँहि पाइयतु अनुराग है।"
वही मध्या अधीरावस्था में स्वामी की रसीली छेड़-छाड़ से बिगड़-कर कहती है—
"सोवन दीजै, न दीजै हमें दुख, यों हीं कहा रसबाद बढ़ायो?
मान रह्योई नहीं मनमोहन, मानिनी होय सो मानै मनायो।"
नायक नायिका से पूछता है कि आज मान क्यों किया है? धीराधीरा इसका उत्तर यों देती है—
"तुम सों कीजै मान क्यों बहुनायक मनरंज?
बात कहत यों बाल के भरि आए दृग-कंज।"
प्रौढ़ा धीरा तो अपने पति को केवल—
"ढीली बाँहन सों मिली, बोली कछू न बोल;
सुंदरि मान जनायके लियो प्रानपति मोल।"
(२) मध्या विप्रलब्धा को जब पति संकेत-स्थल में नहीं मिला, तो उसकी आँखों में आँसू भर आए, पर वे भूमि में नहीं निपतित हुए। इस व्यापार पर कवि की कल्पना यह है कि अश्रु-रूप मोती तीक्ष्ण कटाक्षों में भिदकर जहाँ-के-तहाँ ही रह गए—