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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/६६

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मतिराम-ग्रंथावली

 

"सुंदर-बदन राधे, सोभा को सदन तेरो
बदन बनायो चार-बदन बनायकै;
ताकी रुचि लैन को उदित भयौ रैन-पति,
मूढ़-मति राख्यो निज कर बगरायकै।
'मतिराम' कहै, निसिचर चोर जानि याहि
दीनी है सजाय कमलासन रिसायकै;
रातौ-दिन फेरै अमरालय के आस-पास,
मुख मैं कलंक-मिस कारिख लगायकै।"

प्रकृत का प्रतिषेध करके अन्य का स्थापन अपह्नुति है। शुद्धापह्नुति में सच्चा धर्म छिपाया जाता है, और छलापह्नुति में छल, कैतव तथा मिस आदि पदों के सहारे सच्ची बात छिपाई जाती है। उपर्युक्त छंद में चंद्रमा की जैसी विडंबना की गई है, उससे भी बढ़कर विडंबना एक दूसरे छंद में है। मतिराम का वह छंद भी हम यहाँ देते हैं—

"एरे मतिमंद चंद, धिक है अनंद तेरो,
जो पै बिरहिनि जरि जाति तेरे ताप ते;
तू तौ दोषाकर, दूजे धरे है कलंक उर,
तीसरे कपालि-संग देखो सिर छाप ते।
कहै 'मतिराम', हाल जाहिर जहान तेरो,
बारुनी के बासी, भासी रबि के प्रताप ते;
बाँध्यो गयो, मथ्यो गयो, गयो पियो, खारो भयो,
बापुरो, समुद्र तो कुपूत ही के पाप ते।"

शब्दार्थावृत्ति दीपक

जहाँ वर्ण्य (प्रस्तुत) और अवर्ण्य (अप्रस्तुत) का धर्म एक होता है, उसे दीपक अलंकार कहते हैं। इसी प्रकार जहाँ अनेक क्रियाओं का कारक वही हो, वहाँ भी दीपक अलंकार माना गया है। दीपक में