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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/६५

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समीक्षा

भयंकर आपदा से त्राण पाने के लिये, पुकार पुकारकर प्रार्थना कर रहा है। सागर-तरंगों का करुणा-पूर्ण शब्द इसी प्रार्थना की सूचना देता है। ब्रह्मा को भी दया आ गई है। यह बड़ा-सा चंद्रमा उनका कंम-डलु है। इसमें लवालब पीयूष भरा हुआ है। झुलसे हुए समुद्र को जिलाने के लिये उन्होंने अपने इस कमंडलु से सुधा ढरका दी है। यह गंगा नहीं हैं, वही ब्रह्मा के चंद्र-कंमंडलु से गिरी सुधा-धारा है, जिसे समुद्र पान कर रहा है। कैसी अनोखी अपह्नुति है—

"पारावार पीतम को प्यारी ह्वै मिली है गंग,
बरनत कोऊ कबि - कोबिद निहारिकै;
सो तो मतो मतिराम के न मन मानै, निज—
मति सो कहत यह बचन बिचारिकै।
जरत, बरत बड़वानल सों बारिनिधि,
बीचिनि के सोर सों जनावत पुकारिकै;
ज्यावत बिरंचि ताहि, प्यावत पियूख निज,
कलानिधि - मंडल - कमंडल तैं ढारिकै।"

अब छलापह्नुति को भी देखिए।

ब्रह्मा ने खूब कौशल से श्रीराधिकाजी का मुख-मंडल बनाया। चंद्रदेव को अब तक अपने सौंदर्य का घमंड था, पर अब उनके यशो-ह्रास का अवसर आया। उन्होंने अपनी पूर्व मर्यादा बनाए रखने के लिये चोरी का महापातक अपने सिर पर ओढ़ा। रात को चुपके- चुपके अपने कर (किरण और हाथ) इसलिये फैलाए कि राधिकाजी का सौंदर्य चुरा लें, परंतु बेचारे पकड़े गए। ब्रह्मा के दरबार में इनका मुक़द्दमा हुआ। इन पर निशिचर चोर होने का अभियोग प्रमाणित हो गया। कमलासन ने क्रोध करके इनके लिये अपमान जनक दंड की व्यवस्था कर दी। तब से यह बेचारे अपने मुख में कलंक-रूपी कालिमा लगाए दिन-रात अमरालय के चारो ओर पहरा दिया करते हैं—