पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/६९

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समीक्षा

समीक्षा (१) संकोच- नाम ही लक्षण है। ज्यों-ज्यों परसे लाल तन, त्यों-त्यों राक्ष गोय; नवल बधू डर - लाज ते इंद्रबधू-सी होय।" रसराज में उपर्युक्त दोहा 'नवोढ़ा' के उदाहरण में दिया हुआ है । अर्थ स्पष्ट है। (२) विषाद-नाम ही लक्षण है। रसराज के नष्टसंकेत अनुशयना नायिका के उदाहरण में वह छंद दिया हुआ है। मुरारिदानजी इसमें विषाद-अलंकार मानते हैं, और वह स्पष्ट दिखलाई भी पड़ता है । आई ऋतु पावस, अकास, आठौ दिसनि मैं , सोहत सुरूप जलधरन की भीर को ; X भौन ते निकसि वृषभानु की कुंवरि देख्यो , तासु में सहेट को निकुंज गिरो तीर को ; नागरि के नननि मैं नीर को प्रबाह बढ्यो , देखत प्रबाह बढ्यो जमुना के नीर को। (३) अन्योन्य-नाम लक्षण है। रसराज के प्रौढ़ा विप्रलब्धा में मुरारिदानजी यह अलंकार स्थापित करते हैं- "साँझ ही सिंगार साजि, संग ले सहेलिन को, सुंदरि मिलन चली आनंद के कंद को; कबि 'मतिराम' बाल करति मनोरथनि- देख्यों परजंक में न प्यारे नंदनंद को। नेह तें लगी है देह दारुन दहन गेह, बाग के बिलोकि द्रुम-बेलिन के बृद को; चंद को हँसत तब आयो मुख-चंद, अब - चंद लागो हँसन तिया के मुख-चंद को।"