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मतिराम-ग्रंथावली


(४) परिणाम-नाम ही लक्षण है।

प्राणपति अन्यत्र रात्रि बिताकर प्रातःकाल आया, नायिका ने मान किया। छली पति पैरों पर गिर पड़ा। नेत्रों में जो क्रोध के आँसू आ गए थे, वे रस के आँसू हो गए, तथा जो क्रोधमयी लालिमा नेत्रों में मौजूद थी, वह अनुराग की लालिमा हो गई। मान के चिह्नों का परिणाम यह हुआ-

रिस ही के आँसू रस-आँसू भए आँखिन मैं,

रिस की ललाई सो ललाई अनुराग की। (५) परंपरित उपमा-नाम ही लक्षण है। परंपरित रूपक के समान ।

प्यारी और प्यारे आषाढ़ की संध्या को बैठे थे। प्यारे के मुँह से और स्त्री का नाम निकल गया । नायिका पावस-ऋतु का रूप ही बन गई । भौंहें इंद्रधनुष के समान चढ़ीं । आँसू चूंदियों के समान गिरे, और हास्य हंस के समान उड़ गया-

"दोऊ अनंद सों आँगन-माँझ बिराजे असाढ़ की साँझ सोहाई; प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई। आयो उनै मुँह मैं हँसी, कोपि तिया सुरचाप-सी भौंहें चढ़ाई; आँखिन ते गिरे आँसू के बूंद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाँई।"

भाषा-सौंदर्य

भाषा का सबसे प्रधान गुण यह है कि उसके द्वारा लेखक या कवि अपने जो भाव प्रकट करना चाहता हो, उनको प्रकाशित करने में वह पूर्णतया समर्थ हो । भाव प्रकट कर सकने की पूर्ण सामर्थ्य अच्छी भाषा के लिये परमावश्यक है । जिस भाषा में इस गुण का अभाव है, वह अपूर्ण है । भाषा के लिये दूसरा आवश्यक गुण यह है कि वह पाठक को लेखक या कवि के अभिप्राय तक झटपट पहुँचा दे। यह न हो कि पाठक बेचारा समर्थ भाषा में अभिव्यक्त भाव