सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७०
मतिराम-ग्रंथावली

को जिस भाषा द्वारा प्रकट किया है, वह इसे पूर्ण रूप से प्रकाशित करने में समर्थ हुई है—

(१) "कुंदन को रॅंगु फीको लगै, झलकै अति अंगन चारु गोराई;
आँखिन मैं अलसानि, चितौनि मैं मंजु बिलासन की सरसाई।
को बिन मोल बिकात नहीं 'मतिराम' लहै मुसकानि-मिठाई?
ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि, त्यों-त्यों खरी निकरै-सी निकाई।"

सो मतिरामजी की भाषा में भाव प्रकट करने की पूरी सामर्थ्य है। इस भाव तक पहुँचने में पाठक को भटकना नहीं पड़ता। भाषा आप ही आप उसे इस भाव तक पहुँचा देती है। इसमें भाषा का दूसरा गुण अर्थात् तत्काल प्रधान भाव तक पहुँचाना भी मौजूद है। मतलब की बात जितने थोड़े शब्दों में प्रकट की जा सकती थी, की गई है। भिन्न-भिन्न अंगों का सौंदर्य वर्णन करने के लिये बहुत-सा स्थान चाहिए था, पर 'ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे नैननि, त्यों-त्यों खरी निकरै-सी निकाई'—इस पद ने इतने थोड़े शब्दों में सबका सौंदर्य वर्णन कर डाला। इसी में सब कुछ आ गया। सुंदरता पूर्वक थोड़े शब्दों में सब कुछ कह डाला गया। काव्य शास्त्र का सुप्रबंध, सुष्ठु योजना और प्रसाद-गुण सभी एक साथ उपस्थित हो गए।

उपर्युक्त छंद की भाषा सरल है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। भाषा जिस स्वाभाविक प्रवाह के साथ बहती है, वह भी देखने ही योग्य है। उसमें तरोताज़गी भी स्पष्ट झलक रही है। स्वाभाविक प्रवाह के साथ-साथ भाषा की सुकुमारता और भी मनोमोहिनी है।

अब भाषा के लचकीलेपन पर भी विचार कीजिए। छंद में कवि ने नायिका की अंग-दीप्ति का वर्णन किया, फिर आँखों की सरसता का बखान किया, फिर मुस्कान की मधुरता पर बिका; अंत में निकट से सभी अंगों को ध्यान से देखा, और सभी में बराबर सौंदर्य का उत्कर्ष ही पाया। चारो ही वर्णन भिन्न-भिन्न