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मतिराम-ग्रंथावली


को जिस भाषा द्वारा प्रकट किया है, वह इसे पूर्ण रूप से प्रकाशित करने में समर्थ हुई है-

(१) "कुंदन को रँगु फीको लगे, झलकै अति अंगन चारु गोराई ; आँखिन मैं अलसानि, चितौनि मैं मंज बिलासन की सरसाई। को बिन मोल बिकात नहीं 'मतिराम' लहै मुसकानि-मिठाई ? ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे है नैननि, त्यों-त्यों खरी निकरै-सो निकाई।"

सो मतिरामजी की भाषा में भाव प्रकट करने की पूरी सामर्थ्य है। इस भाव तक पहुँचने में पाठक को भटकना नहीं पड़ता। भाषा आप-ही-आप उसे इस भाव तक पहुँचा देती है। इसमें भाषा का दूसरा गुण अर्थात् तत्काल प्रधान भाव तक पहुँचाना भी मौजूद है । मतलब की बात जितने थोड़े शब्दों में प्रकट की जा सकती थी, की गई है । भिन्न-भिन्न अंगों का सौंदर्य वर्णन करने के लिये बहुत- सा स्थान चाहिए था, पर 'ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे कै नैननि, त्यों- त्यों खरी निकरै-सी निकाई'-इस पद ने इतने थोड़े शब्दों में सबका सौंदर्य वर्णन कर डाला। इसी में सब कुछ आ गया। सुंदरता-पूर्वक थोड़े शब्दों में सब कुछ कह डाला गया। काव्य शास्त्र का सुप्रबंध, सुष्ठु योजना और प्रसाद-गुण सभी एक साथ उपस्थित हो गए।

_उपर्युक्त छंद की भाषा सरल है, इसमें दो मत नहीं हो सकते । भाषा जिस स्वाभाविक प्रवाह के साथ बहती है, वह भी देखने ही योग्य है । उसमें तरोताज़गी भी स्पष्ट झलक रही है। स्वाभाविक प्रवाह के साथ-साथ भाषा को सुकुमारता और भी मनोमोहिनी है।

अब भाषा के लचकीलेपन पर भी विचार कीजिए । छंद में कवि ने नायिका की अंग-दीप्ति का वर्णन किया, फिर आँखों की सरसता का बखान किया, फिर मुस्कान की मधुरता पर बिका; अंत में निकट से सभी अंगों को ध्यान से देखा, और सभी में बरा- बर सौंदर्य का उत्कर्ष ही पाया । चारो ही वर्णन भिन्न-भिन्न