पड़ता है। कहने का तात्पर्य यह कि कविता की भाषा में शब्दों का प्रयोग और भी विदग्धता-पूर्ण होता है। संस्कृत एवं हिंदी साहित्य के आचार्यों ने काव्य-शास्त्र के ग्रंथों में ओज, प्रसाद और माधुर्य-गुणों का उल्लेख किया है। सुष्ठु योजना की प्रशंसा की गई है। भाषा के जिन गुणों का ऊपर वर्णन किया गया है, उनमें ये सब गुण भी सहज ही में पाए जा सकते हैं।
भाषा की उत्तमता जाँचने की जो कसौटी हमने ऊपर स्थिर की है, उसको भाषा-तत्त्ववित् धुरंधर आचार्यों ने माना है। व्रज-भाषा कविता में उपर्युक्त सभी गुण बहुतायत से पाए जाते हैं। इस भाषा के कवियों में जहाँ तक भाषा सौंदर्य का संबंध है, वहाँ तक कविवर मतिरामजी से बढ़कर अच्छी भाषा लिखने में कोई भी कवि समर्थ नहीं हुआ है। इसके कहने में हमें कुछ भी संकोच नहीं कि सूर, तुलसी, देव, बिहारी और पद्माकर आदि कोई भी कवि भाषा-सौंदर्य में मतिराम को पीछे नहीं छोड़ पाते हैं। हाँ, यह मानने को हम तैयार हैं कि इनमें से भी कई कवियों की भाषा ऐसी है कि जिससे मतिराम की भाषा अच्छी नहीं कही जा सकती। भाषा सौंदर्य में उनके बराबर कई कवि अवश्य हैं, पर उनसे बढ़कर कोई भी नहीं है।
मतिरामजी का भाषा-सौंदर्य पाठकगण निम्न लिखित अवतरणों में सावधानी के साथ देखें—
(१) कवि नायिका के सौंदर्य का वर्णन करना चाहता है। वह चाहता है कि सौंदर्य का परिचय ऐसे कौशल से दिया जाय कि पूरे सौंदर्य का वर्णन भी न करना पड़े, और मतलब भी पूरा बन जाय। बस, वह अंग-दीप्ति पर निगाह डालकर चटपट आकर्षक नेत्रों के सामने पहुँचता है, और वहाँ से अपना पीछा छुड़ाकर मुस्कान पर मुग्ध होता है। फिर तो वह जिस अंग पर निगाह डालता है, उसमें उसे सौंदर्य-ही-सौंदर्य देख पड़ता है। मतिरामजी ने अपने इस भाव