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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/८९

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समीक्षा

  बरछी तो बरछी, पर ये तीक्ष्ण सर भी कैसे बेढब हैं! हृदय में कितना गहरे गड़े हैं! मतिरामजी का कितना अच्छा नेत्र-वर्णन है—

"आलस - बलित कोरैं काजर - कलित,
'मतिराम' वै ललित, अति पानिप धरत है;
सारस सरस, सोहैं सलज सहास,
सगरब, सबिलास ह्वै मृगनि निदरत हैं।
बरुनी सघन बंक तीछन कटाच्छ,
बड़े लोचन रसाल उर पीर ही करत हैं;
गाढ़े ह्वै गड़े हैं, न निसारे निसरत,
मैन बान-से बिसारे न बिसारे बिसरत हैं।"

नेत्र-वाणों का दृश्य पाठकों ने देखा, अब इनके और भी कर्तब देखने चाहिए। ये बाजीगर भी पूरे हैं। देखते-न-देखते श्याम रसाल को कंटकित कदंब में परिवर्तित कर देना भी इनके बाएँ हाथ का खेल है। देखिए—

"नैसुक निहारे ते नबेली नैन-कोरनि सों
ऐसी अद्भुत की कलानि आचरित है;
ललित, ललाम, स्याम; रसिक रसाल को
कदंब मुकुलित के कुलनि सों करति है।"

आइए, इन नेत्रों की और भी बुराई आपको सुनाई जाय। देखिए, इन्होंने कैसी अनीति मचा रक्खी है! सबके देखते-देखते चित्त की चोरी कर ही डालते हैं। चोरी यों ही महापातक है। बड़ा भारी अपराध है; पर ये अस्त्र चलाकर घायल भी कर डालते हैं। इनके कटाक्ष जब छाती में गड़ते हैं, तभी समझ पड़ता है कि ये काम-शरों से भी तीक्ष्णतर हैं। चोरी और दूर से फेककर अस्त्रों द्वारा घायल करने की बात निंद्य होने पर भी डाके की अपेक्षा कम घृणित है। परंतु ये दुष्ट नेत्र तो कमल और खंजन तथा मछलियों की छवि को जबरदस्ती छीन बैठे हैं। मृगों के नेत्रों की शोभा भी