पर इस प्रीति को समझनेवाले ही समझ पाते हैं। सबके पहुँच
की यह बात नहीं है-
"वेई नैन लागत रुखाई-भरे लोगन को,
वेई नैन लागत सनेह-भरे नाह को।"
परंतु जब रुखाई छोड़कर आँखें विहँस उठती हैं, तो किसी को शब्द के विना ही उत्तर मिल जाता है-
“लाज-भरी अंखियन बिहँसी बलि, बोल कहे बिन ऊतरु दीन्हो।"
परंतु कभी-कभी आँखों की इस हँसी का परिणाम इस हद तक भी पहुँच जाता है कि कवि को चेतावनी देनी पड़ती है-
"बढ़ि जैहै इन दृगन के हाँसन ते उपहास ।" देवांगनाओं की आँखों में यह विशेषता होती है कि उन्हें पलक नहीं मारनी पड़ती। नायिका की चकितावस्था में उसकी आँखें भी निनिमेष हो जाती हैं-
"नेकु निमेख न लागत नैन, चको चितवै तिय देवतिया-सी।" एक ओर नेत्रों के स्थिर भाव का यह दृश्य है, तो दूसरी ओर मुंह- जोर दग-तुरंग किसी की मानते ही नहीं-
"मानत लाज-लगाम नहि, नैक न गहत मरोर;
होत लाल लखि बाल के दृग-तुरंग मुंहजोर।"
खैर, जहाँ इच्छा होती है, वहाँ जाते तो हैं ही; पर वे शूर भी ऐसे हैं कि सभर-भूमि (रणस्थल-समर-भूमि-काम-स्थान) से फिर विचलित भी किसी प्रकार नहीं होते। इन नेत्र शूरमाओं की कमान भौंहें और तीर कटाक्ष हैं-
"भौंह कमान, कटाछ सर, समर-भूमि बिचलै न ;
लाज तजेहूँ दुहन के सजल सूर-से नैन।"
कवि क्या ठीक पूछता है-
"तिरछी चितौनि मैन बरछी-सी कौन की"