पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्राक्कथन

वह वाक्य, जिसकी शब्दावली या अर्थ अथवा शब्द और अर्थ, दोनो ही साथ-साथ मिलकर रमणीय पाए जायं, काव्य कहा जायगा। रमणीय वह है, जिसमें चित्त रमण करे-जो चित्त को अपने में लगा ले । रमणीयता आनंद की उत्पत्ति करती है। कविता की रमणीयता से जो आनंद उत्पन्न होता है, वह लोकोत्तर है। उसमें स्वार्थ की प्रधानता नहीं है। उसका उपभोग सहृदय रसिक जन ही कर सकते हैं। अलंकार, शब्द-चित्र एवं रस-रमणीयता के परिपोषक हैं। रसात्मक वाक्य में बड़ी ही सुंदर कविता का प्रादुर्भाव होता है । नीरस एवं अलंकार-प्रधान कविता में बहुत थोड़ी रमणीयता पाई जाती है। शब्द-चित्र से पूर्ण वाक्य तो केवल कहने-भर को कविता के अंतर्गत मान लिया गया है। वास्तव में रसात्मक काव्य ही सत्काव्य है। सत्काव्य अभिधा, लक्षणा और व्यंजना-मूलक तीन प्रकार का होता है। पहले अभिधा- मूलक काव्य का ही आदर था, पर अब जिस काव्य में व्यंग्य का प्राधान्य हो, वही सबसे अच्छा माना जाता है। इसके बाद लक्षणा- मूलक काव्य का नंबर है, और तब अभिधा-मूलक काव्य का स्थान । रसात्मक काव्य वह है, जिसमें रस का परिपाक पूर्ण रीति से हुआ हो। रसों की संख्या नव है। रसों में सबसे अधिक वर्णन शृंगार-रस का पाया जाता है। संसार के साहित्य में शृंगारमयी कविता का प्राधान्य है। शृंगार-रस का स्थायी भाव प्रेम है। प्रेम