विधेयात्मक, सहानुभूतिमय और सत्य है। यह सबसे अधिक व्यापक, स्थायी और उपयोगी है। इसमें स्वार्थ का अभाव, संपूर्ण आत्मत्याग और तन्मयता की पराकाष्ठा है। इन्हीं कारणों से श्रृंगार रस को रसों का राजा माना गया है। श्रृंगार रस के अंतर्गत प्रेम-भक्ति की कविता आ जाती है। इस प्रकार की कविता का संबंध वैष्णव-धर्म से बहुत अधिक है। प्रेम और भक्ति के नायक श्रीकृष्णचंद्र हैं। वह परमात्मा हैं, पर प्रेम भक्ति में इनका पद दूल्हा का है। प्रत्येक आत्मा इनकी दुलहिन है। भक्तों के मत से दूल्हा-दुलहिन का यह संबंध सदा के लिये है। गोपियों और विशेषकर राधा और कृष्ण का प्रेम इसी प्रकार का है। श्रीकृष्णचंद्र में सौंदर्य, प्रेम, ज्ञान, दया और सेवा का अच्छा विकास हुआ था। उनके सौंदर्य और प्रेम के दर्शन वृंदावन में, ज्ञान के मथुरा और कुरुक्षेत्र में तथा सेवा और दया के द्वारका में होते हैं। यही श्रीकृष्ण श्रृंगार रस के देवता हैं। प्रेमी और कृष्ण-भक्त लोगों का मत है कि वृंदावन के कृष्ण में ही मधुरता का सबसे अधिक समावेश है। श्रृंगार रस की कविता में श्रीकृष्णचंद्र के नायक और श्रीराधिकाजी के नायिका होने का यही रहस्य है।
ऊपर जिस प्रकार की श्रृंगार रस की कविता का उल्लेख हुआ है, वैसी कविता व्रज भाषा में निबद्ध काव्य-ग्रंथों में प्रचुर परिमाण में, पाई जाती है। इसमें तन्मयता और कला-नैपुण्य का पर्याप्त प्रदर्शन है। कुछ कवि प्रेम-भक्ति के यथार्थ महत्त्व को न समझ सकने के कारण उसके महान् अभिप्राय को प्रकट करने में असमर्थ रहे हैं। इतना ही नहीं, नीचे दर्जे के विषय प्रेम की छाप देकर उन्होंने बहुत सी श्रृंगार-कविता का सुंदर रूप छिपा दिया है, पर फिर भी इन कवियों की निंदा इस कारण होनी चाहिए कि उन्होंने श्रृंगार रस के उस सुंदर रूप को क्यों नहीं दिखलाया, न कि इस कारण कि जो रूप उन्होंने दिखाया है, वह उन्हें दिखलाना ही न चाहिए था। विषय: