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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/९३

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समीक्षा

कितना ज़बरदस्त अश्रु-प्रवाह है! पर आश्चर्य तो यह कि इतना प्रबल होते हुए भी वह वियोगाग्नि को बुझाने में सर्वथा असमर्थ पाया जाता है। इसकी दशा तो ठीक समुद्र के समान है। अगाध सागर के लिये यह कितनी हीनता की बात है कि उसका बड़वानल बुझाया न बुझे। आँसू भी वैसे ही वियोगाग्नि नहीं बुझा पाते हैं—

"बाल-बिलोचन-बारि के बारिध बढ़ै अपार,
जारै जो न वियोग की बड़वानल की झार।"

प्रेम और मान

पतंग का दीपक पर कैसा सहज निष्कपट प्रेम है। उसकी एक झलक देखते ही वह उस पर शरीर और प्राण दोनो ही न्योछावर कर देता है। कैसा सच्चा आत्मनिलय है। सुख में प्रेम की क्या दशा रहेगी, इसके बतलाने की आवश्यकता नहीं, पर वह देखो, प्रणयियुग्म की देह जैसे-जैसे सूखती जाती है, वैसे-वैसे प्रेम का पानिप और भी सरस होता जाता है। दुख में भी जो बढ़ता रहे, वही सच्चा प्रेम है। प्रेम अपने और प्रेम-पात्र में कोई भेद नहीं रखता। उसके लिये उसका प्रेम-पात्र ही मूर्तिमान् प्रेम है। उसे यही जान पड़ता है कि संसार के सारे प्रेम की उत्पत्ति मेरे प्रेमपात्र से ही हुई है। सौंदर्य प्रेम का सहायक है, पर प्रेम से सौंदर्य की उत्पत्ति है। सौंदर्य से प्रेम की उत्पत्ति नहीं है। चंद्रमा का आविर्भाव सिंधु से हुआ है, यह विचार ठीक नहीं है। असल तो यह है कि किसी के मुख-चंद्र से ही यह प्रेम-पयोधि उमड़ पड़ा है। यह यौवन-काल मस्त हाथी के समान है। इसके पैरों में लज्जा-रूपी शृंखला पड़ी हुई है, और इसका संचालक महावत प्रेम है। वह जिधर इसे ले जाता है, उधर ही यह मंद गति से चलता रहता है। प्रेमियों में प्रेम-संबंधी मान भी अनूठी वस्तु है। यद्यपि यह एक प्रेम का खिलवाड़ है, फिर भी गर्मी पाकर जैसे कभी-कभी पारा उड़ जाता है, वैसे ही इससे भी कभी-कभी प्रेम की हानि