होती है । मान की ज्योति दीपक की ज्योति के समान है । दोनो ही
स्नेह को जला दिया करती हैं। मान की शोभा अधिकतर स्त्रियों
में ही है, यद्यपि मानी पुरुषों का भी अभाव नहीं कहा जा सकता
है। मान तीन प्रकार का होता है-लघु, मध्यम और गुरु । मान-
लीला बड़ी ही विचित्र और रसीली है। श्रीकृष्णचंद्र मानिनी राधा
को मना रहे हैं, पर वह कैसे स्वाभाविक मान-सूचक शब्दों में कहती
है-“मान रह्योई नहीं मनमोहन, मानिनी होय, सो मान मनायो ।”
पर चतुर कृष्ण कब चूकनेवाले हैं। उनका विनीत उत्तर कितना क्षमा-
याचना के भावों से भरा हुआ है। वह कहते हैं-"कहा चतुराई ठानि-
यत प्रानप्यारी, तेरो मान जानियत रूखी मुख-मुसकानि सों।" मान-
लीला का यह वार्तालाप-प्रकरण कितना मधुर है ! पर परस्पर आलि-
गन होते हुए भी मान की सूचना देने की तरकीब भी प्रियतमा जानती
है । उसने प्रियतम का आलिंगन तो किया, पर ढीली बाँहों से, और
बातचीत बिलकुल न की । बस, मान की सूचना हो गई । ये सब मान
के सौम्य रूप हैं। विकट रूप में मामला कुछ नाजुक हो जाता है ।
हठ परा काष्ठा को पहुँच जाता है। पैरों पड़ने की नौबत आती है।
फिर भी प्रियतम को झिड़की सुनने को मिलती है। कभी-कभी तो
इस प्रकार के वचन भी सुनने को मिलते हैं-
"ताके पग लागो, निसि जाके उर लागे लाल,
मेरे पग लागी उर आगि न लगाइए।" क्रोध से प्रियतमा के नेत्र लाल हो जाते हैं। अश्रु-धारा बहने लगती है । मान की विकट अवस्था उपस्थित होती है; परंतु प्रियतम अंत में मनाकर छोड़ता है। क्षण-मात्र में अपूर्व परिवर्तन उपस्थित होता है-
"रिस ही के आँसू रस-आँसू भए आनंद के
रिस की ललाई, सो ललाई अनुराग को।"