पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/९७

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समीक्षा


आ गई, जिस पर सूर्य-रश्मियों के पड़ने से अग्नि का आविर्भाव हुआ था । उन्होंने अपने इस पूर्व अनुभव को एक सुकुमार विचार अभि- व्यक्त करने में लगाया । वह कहते हैं-

"चंद-किरनि लगि बाल-तन उठ आगि यो जागि;

दुपहर दिनकर-कर परसि ज्यों दरपन मैं आगि ।"

(३) पारा गर्मी पाकर उड़ जाता है । एक मानवती नायिका अपने प्रियतम से रूठ कर बैठी है । मिज़ाज में गर्मी ज्यादा चढ़ गई है । मतिरामजी ने देखा, कहीं ऐसा न हो कि नायक में भी ऐसी ही गर्मी आ जाय । क्योंकि यह स्पष्ट है कि यदि दोनो ओर से 'गर्मागर्मी' हुई, तो प्रेम देवता के भागने में देर न लगेगी । प्रेम का गर्मी (तेज) से भागने का विचार उत्पन्न होते ही मतिरामजी को पारा और गर्मी' का अनुभव स्मरण हुआ। इस अनुभव से तत्काल लाभ उठाकर कविवर कहते हैं-

“कहा लियो गुरु मान को अति ताती है नेम ?

पारद-सो उड़ि जायगो अलि अंतर यह प्रेम ।"

( ४ ) समुद्र में ज्वार-भाटा आता है, परंतु वह एक अपनी निर्दिष्ट सीमा से आगे नहीं जाता। वहाँ पहुँचकर पानी धीरे-धीरे पीछे को लौट जाता है । सीमा के बाहर होकर वह नहीं बहता है। जहाँ से आता, वहीं को लौट जाता है। उस सीमा-प्रांत को जिसके आगे ज्वार-भाटा का भय नहीं रहता है, 'बेला' कहते हैं। ज्वार-भाटे के रूप में प्रकृति के इस खिलवाड़ से मतिरामजी परिचित थे । लज्जा से विवश मुग्धा सुंदरी का विरह बड़ा ही मर्मस्पर्शी दृश्य है । आँसू उमड़े पड़ते हैं, परंतु लज्जा के कारण सुंदरी नेत्रों के आँसू नेत्रों ही में किसी प्रकार से विलीन कर डालती है। बरुनियों तक आकर आँसू फिर गायब हो जाते हैं । निर्दिष्ट सीमा के आगे आँसुओं का आना बंद है। ज्वार-भाटा और मुग्धा सुंदरी के अश्रु-प्रवाह में