की थाह लेने के लिये हमें विवश होकर उनके श्रृंगार-सरोवर में डुबकी लगानी पड़ती है, और कोई दूसरा उपाय नहीं है। मतिरामजी के बहुव्यापी ज्ञान के कुछ उदाहरण लीजिए—
प्रकृति-विज्ञान
(१) बहुमूल्य धातु सोना गलाया जा सकता है। इसके गलाने में सोहागा विशेष उपयोगी है। सोने का एक नाम 'सुवर्ण' भी है। इसी 'सुवर्ण' का विकृत रूप 'सुबरन' है। 'सोहागा' को 'सोहाग' भी कहते हैं। 'सुवर्ण' और 'सोहाग' का दूसरा अर्थ क्रम से अच्छा रंग और सौभाग्य भी हो सकता है। सधवत्व-सूचक सौभाग्य का विकृत रूप 'सोहाग' प्रसिद्ध ही है। सुवर्ण और सोहाग शब्द श्रृंगार-कविता में अपने पिछले अर्थों के कारण बड़ी ही सरलता से व्यवहृत हो सकते हैं। मतिरामजी ने इन दोनो शब्दों के दोहरे अर्थों को देखा। उन्होंने देखा कि 'सोहाग' में 'सुवर्ण' को द्रवीभूत करने की कैसी मनो-मोहिनी शक्ति है। इस अन्वेषण के उपलक्ष्य में प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी कविता-कामिनी को 'श्लेष' अलंकार पहना दिया। वह कहते हैं—
"ऐसौ पति पायो बड़भागनि सो प्यारी सदा
सुबिरन ही को पघिलावत सुहाग सों।"
सुंदर नायक को सौभाग्यवती के अतिरिक्त कौन द्रवीभूत करेगा? सोने को पिघलाने के लिये सोहागा अवश्य ही चाहिए। मतिरामजी मानव-प्रकृति और 'स्वर्णकारी' के इस तत्त्व को भली भाँति समझते थे।
(२) आतशी शीशे पर सूर्य की किरणें पड़ने से आग पैदा होना 'प्रकृति-विज्ञान' में एक साधारण घटना है। मतिरामजी प्रकृति-विज्ञान के इस तत्त्व से परिचित थे। संभवतः उन्होंने शीशे में इस प्रकार से अग्नि प्रदीप्त होते देखा था। किसी विरहिणी नायिका को चंद्र-किरणों के स्पर्श से छटपटाते देखकर उन्हें उस शीशे की यदि