का ही अधिकार होता था। कुछ लोग दासों की चोरी करके उनको बेचते भी थे। यहाँ की दास-प्रथा अन्य देशों की दास-प्रथा की भाँति कलुपित, घृणित और निन्दनीय नहीं थी। ये दास घरों में परिवार के एक अंग की तरह रहते थे। त्यौहार आदि शुभ अवसरों पर दासों पर भी विशेष कृपा होती थी। जो दास अच्छा कार्य करते थे, उन पर स्वामी बहुत अधिक कृपा करते थे। राज्य की ओर से दासों के लिये विशेष दया के नियम बने हुए थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है कि जबर्दस्ती दास बनाए हुए और चोरों द्वारा खरीदे गए दासों को यदि स्वामी मुक्त न करे तो राजा उन्हें स्वतंत्र करा दे। किसी कठिन अवसर पर स्वामी के प्राण बचानेवाला भी मुक्त कर दिया जाता था* | नारदस्मृति में तो यहाँ तक लिखा है कि स्वामी के प्राण बचानेवाले को पुत्र की तरह जायदाद का भाग भी दिया जाय। जो कर्ज अादि लेकर दास वनते थे, वे स्वामी से लिया हुआ सब ऋण चुकाकर चाहे जब मुक्त हो सकते थे। इसी तरह अन्य प्रकार के दास भी मुक्त होते थे। अनाकालभृत दो गौवें देकर, आहित धन देकर; युद्धप्राप्त, स्वयं संप्रतिपन्न और पणेजित दास कोई उत्तम सेवा कर या अपने स्थान पर प्रतिनिधि देकर मुक्त हो मोक्षितो महतरचर्णायुद्धप्राप्तः पणे जितः । तवाहमित्युपगतः प्रव्रज्यावसितः कृतः ।। भक्तदासश्च विज्ञेयस्तथैव बडवाहृतः । विक्रेता चात्मनः शास्त्रे दासाः पञ्चदशस्मृताः ।। मिताक्षरासहित; पृ० २४६ !
- बलाहासीकृतश्चौरविक्रीतश्चापि सुच्यते ।
स्वामिप्राणप्रदो भक्त त्यागात्तन्निष्क्रयादपि । वही, पृ० २४६ ।