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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/११२

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जाद दोनों बहम सकते थे। मिताक्षरा में उस समय दास के मुक्त करने की विधि का भी उल्लेख है। स्वामी दास के कंधे से पानी का भरा हुआ घड़ा उठाता और उसे तोड़कर अक्षत, पुष्प आदि दास पर फेंकता तथा तीन बार 'अव तू दास नहीं है, यह कहकर उसे मुक्त कर देता। यहाँ दास विश्वासपात्र निजी सेवक समझ जातं थे. उनके साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं होता था। ऐसी स्थिति में चीनी या अरव यात्रियों को हमारे यहाँ के संबकी और दासां में अंतर मालूम नहीं पड़ा, इसी से उन्होंने दास-प्रथा का अख नहीं किया। साहित्य और विज्ञान की अत्यंत उन्नति होते हुए भी साधारण जनता में वहम बहुत थे। लोग भिन्न भिन्न जादू टोनी नया भूत प्रेत आदि में विश्वास करते थे की प्रथा अत्यंत प्राचीन काल में भारतवर्ष में विद्यमान थी। अथर्ववेद में अभिचार, सम्मोहन, पीडन, वारा मारण आदि का वर्णन है। राजा के पुरोहित अपर्यवेद के विद्वान होते थे। शत्रुओं को नष्ट करने के लियं राजा जादू धार टानों का भी प्रयोग कराते थे। हमारे समय में भी इनका बहुत प्रचार था। वाण ने प्रभाकरवर्धन की बीमारी के समय लोगों का पिशाच-बाधा मानना और उनका उपाय करना भी लिखा है; कादंवर्ग भी वाण ने पुत्र-प्राप्ति के लिये विलासवती का जादृ कं मंडन्हों में

  • मिताभरा सहित; ए २५६-५० ।

। स्व दाखमिच्छयः पतनदास प्रीतमानसः । रकंधादादाय तस्यासी भिंद्यादान सहान्नमा ।। राक्षताभिः सपुष्पाभिमूर्धन्यहिरवाकिस्त । श्रदास इत्यधोक्त्या निः प्राण मुलं तावानन् ।। वही; पृ. । हर्षचरित; पृ० १५४. निर्णयसागर संन्कार।