पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/११९

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. (६८) याज्ञवल्क्य स्मृति में भी विधवा-विवाह का वर्णन है। विष्णु ने तो यहाँ तक लिखा है कि असंभुक्त विधवा के दूसरी बार विवाह से उत्पन्न पुत्र जायदाद के भी अधिकारी है। पराशर तक ने लिखा है कि यदि किसी स्त्री का पति मर गया हो, या साधु बन गया हो, लापता हो गया हो या नपुंसक या पतित हो गया हो तो वह पुन- विवाह कर सकती है। प्रसिद्ध जैनमंत्री वस्तुपाल तेजपाल का विधवा से उत्पन्न होना प्रसिद्ध ही है। इस प्रथा का प्रचलन शनैः शनैः कम होता गया और अंत में द्विजों में यह प्रथा बिलकुल नष्ट हो गई। अलवेरूनी लिखता है कि एक स्त्री दूसरी बार विवाह नहीं कर सकती। विधवाओं के वस्त्र वेशभूपा आदि भी सब दूसरी तरह के थे, जैसा कि राज्यश्री के विधवा होने पर बाय के 'वध्नातु वैधव्यवेणी' लिखने से पाया जाता है। आज भी प्रायः उच्च कुलों में विधवा-विवाह नहीं होता, परंतु बहुत सी जातियों में विधवा-विवाह प्रचलित है। सती प्रथा का कुछ कुछ प्रचलन भी हमारे निर्दिष्ट काल के पूर्व से चला आता था । यह प्रथा हमारे समय में किसी प्रकार बढ़ती गई। हर्प की माता के स्वयं अग्नि में जल मरने का वृत्तांत हर्षचरित में मिलता है राज्यश्री भी अग्नि में कूदने को तैयार हो गई थी, परंतु उसे हर्प ने रोक लिया। हर्ष रचित प्रियदर्शिका में विंध्यकेतु की स्त्री के सती होने का वर्णन मिलता है। इससे पूर्व छठी सदी के एक शिलालेख से भानुगुप्त के सेनापति गोपराज की स्त्री के सती होने का उदाह- रण मिलता है। अलबरूनी लिखता है-"विधवाएँ या तो तपस्विनी का जीवन व्यतीत करती हैं या अग्नि में जल जाती हैं। राजाओं सती प्रथा

  • नष्ट मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतो।

पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ अध्याय ४॥