पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/११८

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31]" पर्दा या चूंघट नहीं चला। आज भी राजपूताने से दनिया के सारे भारतवर्ष में पर्दे की प्रथा नहीं है और कहीं है भी तो नाम मात्र को। मनुस्मृति में, जो हमारे समय से पूर्व बन चुकी थी,पाठ प्रकार के नाम, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, प्रासुर, गांधर्व, राजन और पैशाच-विवाहों का उल्लेख है। बहुत संभव विवाह है, उस समय विवाह के च प्रकार छोड़ बहुत प्रचलित हों, परंतु इनका प्रचार कम हो रहा था। चानवक्य ने इन आठों का उल्लेख कर पहले चार को ही करनं चाय बताया है। विष्णु और शंख स्मृतियों में भी पहले चार का ही नारा बताया है। हारीत स्मृति में तो केवल ब्राह्म विवाह को ही उचिन कहा गया कुलीन घरों में बहु विवाह की प्रथा विद्यमान नी । गजा. नर- दार आदि धनाढय लोग प्राय: कई विवाह करनेछ। एक गिला. लेख में कलचुरी राजा गांगेयदेव के मरने पर उनकी बहन नी मिलों के सती होने का उल्लेख है। उस समय तक दाल-विवार को प्रमा आरंभ नहीं हुई थी। कालिदास नं शकुंतला फं माय दुष्यंग कं मिलने का उल्लेख किया है, उस समय शकुंतला बड़ा हो : थी। गृह्यसूत्रों में विवाह के कुछ समय दाद गर्भाधान करने का उल्लेख है, जिससे स्पष्ट है कि कन्या उस समय तक बड़ी हो जाता थी। मनुस्मृति में कन्या की वायु १६ दर्प दी है। राज्यश्री की भी विवाह के समय १४ वर्ष की अवस्था थी। कादंबरी में परित महाश्वेता या कादंबरी की प्रायु भी विवाह चान्च हो गई थी। दो. हमारे निर्दिष्ट काल के अंतिम समय में दाल-विवाह को प्रया प्रारंभ अवश्य हो गई थी। मुसलमानों के आने बाद इन या का अधिक प्रचार हुना। विधवा-विवाह की प्रथा पद्यपि पहले की तरह उस समय प्रचलित नहीं थी, फिर भी उसका एकदन प्रभाव न था। .