. , ( ८० ) शब्द वैचित्र्य तथा अनुपासादि की इसमें भी बहुलता है। समास और श्लेपादि अलंकार बहुत होने के कारण इनकी भापा कहीं कहीं छिष्ट हो गई है। इनसे तात्कालिक सभ्यता, रहन सहन आदि पर बहुत प्रकाश पड़ता है। दंडी कवि कं वनाए हुए 'दशकुगारचरित' से हमें तत्कालीन रीति रिवाज, साधारण सभ्यता, राजा अादि विशिष्ट पुरुषों के व्यवहार संबंधी बहुत सी ज्ञातव्य बाते मालूम होती हैं। सुवंधु- रचित 'वासवदत्ता' भी संस्कृत साहित्य में एक अनोखा ग्रंथ है, परन्तु वहुधा प्रत्येक शब्द पर श्लेपों की भरमार होने के कारण वह विशेप क्लिष्ट हो गया है। कहीं कहीं तो एक ही वाक्य या वाक्यखंड के ६-७ या उनसे भी अधिक अर्थ होते हैं। कवि ने अपनी विद्वत्ता दिखाने के लिये भले ही उसकी ऐसी रचना की हो, परंतु साधारण पाठकों के लिये तो वह बहुत नीरस ग्रंथ है और टीका के बिना तो उन्हें जगह जगह पर रुकना पड़ता है। इसके अनंतर हम प्रसिद्ध कवि वाण के 'हर्पचरित' और 'कादंवरी' को देखते हैं। 'हर्पचरित' एक ऐतिहासिक (हर्पचरित संबंधी ) गद्य काव्य है। इससे हर्प- कालीन इतिहास जानने में बहुत सहायता मिली है। इसकी भापा क्लिष्ट और समासबहुल है। इसका शब्दभांडार बहुत ही अधिक है। काव्य और भाषा की दृष्टि से 'कादंबरी' सर्वोत्कृष्ट है। इसकी भापा क्लिष्ट नहीं और इसमें लालित्य पहले ग्रंथ से अधिक है। इसे पूर्ण करने से पहले ही वाण का देहांत हो गया। रार्ध बाण के पुत्र पुलिन भट्ट (पुलिंद ) ने लिखकर पूरा किया । वाण और उसके पुत्र ने संस्कृत गद्य लिखने में जो भाषा का सौष्ठव प्रदर्शित किया है, वह किसी अन्य लेखक के ग्रंथ में नहीं पाया जाता। इसी से पंडितों में यह कहावत प्रसिद्ध है-"वाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम् ।” सोढ्ढल की 'उदयसुंदरी कथा' और धनपाल की 'तिलकमंजरी' भी उत्कृष्ट गद्य काव्य हैं। उसका उत्त-