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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१३४

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.. . विल्हण-रचित 'कर्णसुदर्ग (नाटिका ), चंदन राजा परमदिर के मंत्री वलराजकृत छ: रूपक -'किरातार्जुनीय ( व्याचाग ।, पर- चरित' (माण ), 'रुक्मिणी परिणय (ईहामृग), त्रिपुरन्द्राई (हिम ). 'हायचूडामणिः ( प्रहसन ) और 'नमुद्रमन' (ममत्रकार ): चौहान राजा विग्रहराज का निचा कुत्रा 'नरकंन्ति नाटक, नालंधर- विरचित 'ललितविग्रहराज नाटक', परमार गजा धारावर के भाई प्रल्हादन देव का 'पार्थपराक्रम' ( व्याचाग ) आदि दृष्टच है। इन अतिरिक्त बहुत सं और भी नाटक लिय गए, जिनकं नाम हम विनार- भय से नहीं देते। साहित्य के भिन्न भिन्न अंगां की उन्ननि हमारे समय की चुकी थी। ध्वनि, अन्नकान, रस आदि नाहिन्ययानी यावश्यक अंगों पर भी जमां नमः । ध्वनि, अलंकार प्रादि ग्रंथ लियं गए । साहित्य के अंग 'काव्यप्रकाश' निन्या. ५ : कर सका, इसलिये उनका शंप भाग पालम () इम के सिवा भी कई ग्रंथ लिखे गए, जिन नाका 'ध्वन्यालाक', भामह का 'अलंकार शारा', 'राज' का मीमांसा', हेमचंद्र-रचित 'काव्यानुशासन, नाभट-हिनिल शासन' और 'वामटालंकार अल-निर्मित 'कायारह रद्रट का 'काव्यानं कार-संग्रहबार मांज-शिल मातीमा मुग्ध है। लंद:शात ता देद काग नमना जाना भी अनेक उत्कृष्ट ग्रंथ लिगम, जिन पिनजाबाई या टि. सूत्र' सबसं अधिक प्राचीन है। हमारे मन भी इन संबंध रखनवालं कई घलिन गए. जिन दानाहर निक 'वाणीभूपण', हंगचंद्र-दन बानुमान मान.