( ८२ ) है, परंतु करुण रस के प्रदर्शन में भवंभूति सबसे बढ़ गया है उसकी कल्पना शक्ति बहुत प्रशंसनीय है। बड़े बड़े वाक्य होने के कारण उसके नाटक रंगभूमि के लिये वैसे अच्छे नहीं हैं, जैसे कि भास और कालिदास के हैं। हमारे समय का होने पर भी भट्टनारायण का समय निश्चित रूप से मालूम नहीं हो सका। उसका 'वेणी- संहार' एक उत्तम नाटक है। इसमें महाभारत के युद्ध का वर्णन है । वीर रस इसकी सबसे बड़ी विशेपता है। 'गुद्राराक्षस' का कर्ता विशाखदत्त भी ८०० से पीछे नहीं हुआ। यह नाटक अपने ढंग का एक ही है। यह बिलकुल राजनीतिक है। राजशेखर ने भी, जो कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल और महिपाल के पास रहता था, कई नाटक लिखे। यह संस्कृत और प्राकृत दोनों भापायों का प्रकांड पंडित था। उसने अपने नाटकों में कई नए छंदों की रचना की है। कहावतों का भी उसने बहुत जगह प्रयोग किया है। उसके बालरामायण और बालभारत नाटकों का विषय तो नाम से ही स्पष्ट है। उसका तीसरा ग्रंथ 'विद्धशाल-भंजिका' एक उत्तम हास्य- रसपूर्ण नाटिका है। कवि दामोदर ने, जो ८५० ई० से पूर्व हुआ था, 'हनुमन्नाटक' या 'महानाटक' लिखा, जिसे नाटक कहने की अपेक्षा काव्य कहना अनुचित न होगा। इसमें प्राकृत का कहीं भी उल्लेख नहीं है। कृष्णमिश्र कवि ( ११०० ई०) ने 'प्रबोधचंद्रोदय' नामक एक वहुत उत्कृष्ट नाटक लिखा । यह अलंकारात्मक तथा भावात्मक नाटक है। नैतिक और दार्शनिक दृष्टि से यह बहुत ही उत्तम है। इसमें शांति, क्षमा, कास, लोभ, क्रोध, दंभ, अहंकार, मिथ्यादृष्टि आदि पात्र रक्खे गए हैं। यह नाटक ऐतिहासिक दृष्टि से भी उपयोगी है। हमने ऊपर कुछ नाटकों का परिचय दिया है। इनके अतिरिक्त भी बहुत से नाटक हमें मिलते हैं, जिनमें से मुरारि-कृत 'अनर्घराधव',
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