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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१४३

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, , ( 0 ) हैं, बहुत अच्छी तरह खंडन किया है। उसने बौद्धदर्शन के विरोध में भी एक पुस्तक (बौद्धधिकार ) लिखी। ये सब ग्रंथ प्राचीन न्याय से संबंध रखते हैं। ६०० ई० के करीव से नैयायिक संप्रदाय में जैन और बौद्ध दार्श- निकों ने भी पर्याप्त उन्नति शुरू कर दी थी। इनकी न्याय-शैली प्राचीन शैली से भिन्न थी। इसका विकास आठवीं सदी के आस- पास हुआ। यह 'मध्यकालीन न्याय' कहा जाता है। बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग ने इसे प्रचलित किया। नालंद में रहनेवाले धर्मपाल के शिष्य धर्मकीर्ति ने सातवीं सदी में 'न्यायबिंदु' नामक ग्रंथ लिखा, जिस पर धर्मोत्तर ने ८०० ई० के आसपास एक टीका लिखी। जैन विद्वान् हेमचंद्र ने सूत्र-शैली पर 'प्रमाणमीमांसा' लिखी। इस मध्यकालीन संप्रदाय की अधिक पुस्तके नहीं मिलती, परंतु तिव्वत में बौद्धों के न्याय संबंधी कई संस्कृत ग्रंघों के तिब्बती अनुवाद मिलते हैं, जिनके मूल ग्रंथ अव उपलब्ध नहीं हैं। नवीन न्याय संप्रदाय का अभ्युदय १२०० ई० के आस पास शुरू होता है। वंगाल के नवद्वीप में गंगेश ने 'तत्त्वचिंतामणि' लिखकर इस संप्रदाय को प्रचलित किया। नवीन न्याय में भाषा की क्लिष्टता और वाह्य शब्द-जाल की अधिक प्रधानता है। पीछे से नदिया में इस संप्रदाय का बहुत प्रचार हुआ, परंतु न उसमें तत्त्व-निर्णय रहा, न तत्त्व-निर्णय का सामर्थ्य, किंतु शब्दाडंबर बहुत बढ़ गया । तक बंगाल में यह प्रचलित है। वैशेषिक उस दर्शन का नाम है, जिसमें पदार्थों' का विचार तथा द्रव्यों का निरूपण हो। महर्षि कणाद का 'वैशेपिक दर्शन, वैशेषिक दर्शन न्याय दर्शन से बहुत कुछ समानता रखता सिद्धांत पक्ष में न्याय कहने से दोनों का बोध होता है; क्योंकि गौतम के न्याय में प्रमाण-पक्ष प्रधान है और इसमें अत्र है