. ( ८६ ) इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, और ज्ञान आत्मा के लिंग ( अनुमान के साधन-चिह्न या हेतु ) हैं। आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है। संसार को बनानेवाला आत्मा ही ईश्वर (परम आत्मा) है। ईश्वर में भी आत्मा के समान संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग आदि गुण हैं, परंतु नित्य रूप से। पूर्वजन्म में किए हुए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। पंचभूतों से इंद्रियों की उत्पत्ति होती है और परमाणुओं के योग से सृष्टि । ऊपर लिखे हुए इस सिद्धांत-परिचय से ज्ञात होता है कि हमारा न्यायशास्त्र केवल तर्कशास्त्र नहीं है, किंतु प्रमेयों का विचार करनेवाला दर्शनशास्त्र है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र ( Logic) से इसका यही भेद है। आचार्य गौतम के न्याय-सूत्रों के प्रसिद्ध भाष्यकार वात्सायन के न्याय-सूत्र-भाष्य की टीका उद्योतकर ने सातवीं सदी के प्रारंभ में लिखी। यह टीका नैयायिक संप्रदाय में बहुत अधिक प्रामाणिक मानी जाती है। वासवदत्ताकार सुबंधु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योतकर इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है । संभवतः ये सव सातवीं सदी के प्रारंभ के आस पास हुए होंगे। उद्योतकर की टीका वाचस्पति मिश्र ने की, जिसकी भी टीका उदयना- चार्य ने तात्पर्य-परिशुद्धि नाम से लिखी ६८४ ई० के आसपास अन्य उदयन ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'कुसुमांजलि' लिखा । इसमें उसने न्याय के दृष्टिकोण से ईश्वर की सत्ता सिद्ध की है। आस्तिक- वाद के लिखे हुए संसार के उत्तम ग्रंथों में यह भी एक माना जाता उदयन की तर्कशैली और प्रतिपादनविधि अत्यंत विद्वत्तापूर्ण और आश्चर्यजनक है। इसमें उसने मीमांसकों के नास्तिकवाद के सिद्धांत तथा वेदांतियों, सांख्यों और बौद्धों के सत्कार्यवाद ( कारण में कार्य का पूर्व से विद्यमान रहना ) का, जिसको परिणामवाद भी कहते म० -१२ , - >
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