(६४ ) प्रसिद्ध थे प्रापस्तंब धर्म सूत्र के न्याय शब्द से पूर्व मीमांसा ही अभिप्रेत है। मध्वाचार्य ने पूर्व मीमांसा विपय का 'सार-संग्रह' ग्रंथ लिखा, जो 'न्यायमालाविरतार' नाम से प्रसिद्ध है। इसी तरह वाचस्पति ने 'न्यायकणिका' नाम से मीमांसा विषयक ग्रंथ लिखा। मीमांसा शास्त्र कर्मकांड का प्रतिपादक है और वेद के क्रियात्मक भाग की व्याख्या करता है। इसमें यज्ञकांड संबंधी मंत्रों में विनि- योग, विधि आदि का भले प्रकार प्रतिपादन किया गया है। इसमें यज्ञ, वलिदान और संस्कारों पर विशेष जोर दिया गया है। अतः मीमां- सक पौरुपेय और अपौरुपेय सभी वाक्यों को कार्य विपयक मानते हैं। मीमांसा में प्रात्मा, ब्राह्म, जगत् आदि का विवेचन नहीं है । यह केवल वेद या उसके शब्द की नित्यता का प्रतिपादन करता है। इसके अनु- सार वेदमंत्र ही देवता हैं। मीमांसकों का कथन है कि सब कार्य फल के उद्देश्य से ही होते हैं। फल की प्राप्ति कर्ग के द्वारा ही होती है। अतः कर्म और उसके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त ऊपर से किसी ईश्वर को मानने की आवश्यकता ही नहीं। मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और नैयायिक अनित्य । सांख्य और पूर्व मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं; वेद की प्रामाणिकता भी दोनों मानते हैं, भेद यही है कि सांख्य वेद का प्रत्येक कल्प में नवीन प्रकाशन मानता है और मीमांसक उसे नित्य कहते हैं। जैमिनि के सूत्रों पर सबसे प्राचीन भाष्य शवर स्वामी का उप. लब्ध होता है, जो संभवतः पाँचवीं सदी में लिखा गया है। कुछ समय पीछे मीमांसकों के दो भेद हो गए। उनमें एक का प्रवर्तक कुमारिल भट्ट सातवीं सदी में हुआ, जिसका उल्लेख धर्म के प्रकरण में किया जा चुका है। उसने मीमांसा पर 'कातंत्रवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' लिखे, जिनमें उसने वेद की प्रामाणिकता स्वीकार न करनेवाले बौद्धों का बहुत खंडन किया। मध्वाचार्य ने इस विषय
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