(६५ ) पर 'जैमिनीय-न्यायमाला-विस्तार' नाम से एक प्रामाणिक ग्रंथ लिखा। इस शास्त्र का नाम पूर्व मीमांसा इसलिये रखा गया है कि कर्मकांड और ज्ञानकांड में से पूर्व ( कर्मकांड ) का इसमें विवेचन है, इसलिये नहीं कि यह उत्तर मीमांसा ( वेदांत ) से पहले बना । उत्तर मीमांसा या वेदांत दर्शन का हमारे इस निर्दिष्ट समय में सवसे अधिक विकास हुआ। व्यास के वेदांत-सूत्र अन्य दर्शन-सूत्र- ग्रंथों की तरह बहुत पहले बन चुके थे। इसका उत्तर मीमांसा सब से प्राचीन भागुरी-कृत भाष्य आज उपलब्ध नहीं है। दूसरा भाष्य शंकराचार्य का मिलता है। शंकराचार्य ने इस युग में धार्मिक और दार्शनिक क्रांति पैदा कर दी। धार्मिक क्रांति का संक्षिप्त वर्णन हम अन्यत्र कर चुके हैं। उन्होंने वेदांत में अद्वैतवाद (आत्मा और पर- शंकराचार्य और मात्मा में भेद न मानना ) और मायावाद के उनका प्रतिवाद सिद्धांत का इतनी प्रबलता और विद्वत्ता से प्रतिपादन किया कि प्रायः सभी विद्वान् दंग रह गए। वेदांतसूत्रों में इस मायावाद का विकास नहीं देख पड़ता । पहले पहल शंकरा- चार्य के गुरु ( गोविंदाचार्य ) के गुरु गौड़पाद की कारिकाओं में माया का कुछ वर्णन मिलता है, जिसे शंकराचार्य ने वहुत विकसित कर दार्शनिक जगत् में बहुत ऊँचा स्थान दे दिया। एक तरह से वे ही अद्वैतवाद के प्रवर्तक आचार्य थे। उन्होंने अपनी विद्वत्ता के बल पर प्रस्थानत्रयी-वेदांतसूत्र, उपनिषदों और गीता--का अद्वैतप्रति- पादक भाष्य लिखकर दार्शनिक-मंडली में इस सिद्धांत का बहुत प्रचार किया। शंकराचार्य की अकाट्य तर्कशैली, ललित भाषा में प्रतिपादन-पद्धति और प्रगाढ़ विद्वत्ता ने बहुत से विद्वानों को अद्वैतवादी बना दिया। अद्वैतवाद के प्रचार के लिये उन्होंने केवल पुस्तकों के भाष्य ही नहीं किए, किंतु संपूर्ण भारत में घूम घूमकर सभी
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