पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१५०

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चारवाक ने इस नास्तिक और प्रत्यक्ष-प्रधान संप्रदाय को नष्ट करने का बहुत प्रयत्न किया। नहीं कहा जा सकता कि यह संप्रदाय कब तक सुसं- गठित रूप में विद्यमान रहा । इतना निश्चित है कि शंकराचार्य के समय में भी यह मत ऐसी हीन स्थिति को प्राप्त नहीं हुआ था कि उसकी उपेक्षा की जा सके बौद्ध धर्म के ह्रास का प्रारंभ हो चुका था, परंतु उसका दर्शन बहुत समय तक स्थिर रहा। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के साथ ही उसका दर्शन नहीं बना। बहुत पीछे बौद्ध बौद्ध दर्शन विद्वानों ने अपने सिद्धांतों को दार्शनिक रूप देने का प्रयत्न किया। वौद्ध धर्म के सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन हम पहले कर चुके हैं जैन संप्रदाय के विद्वानों ने भी अपने सिद्धांतों को दार्शनिक रूप देने में कम यत्न नहीं किया । कुछ समय में ही जैन दर्शन भी पर्याप्त उन्नत और विकसित हो गया। इसके जैन दर्शन सिद्धांतों का भी हम पहले विवेचन कर चुके । फिर भी यहाँ उनके मुख्य दार्शनिक सिद्धांत 'स्याद्वाद' का उल्लेख करना आवश्यक है। मनुष्य का ज्ञान अनिश्चित है। वह किसी वस्तु के स्वरूप को निश्चित रूप में नहीं जान सकता। अपनी इंद्रियों तथा अंतःकरण की दूरवीन के अनुसार ही वह हर एक वस्तु का स्वरूप निर्माण करता है। इंद्रियाँ ज्ञान का पर्याप्त साधन नहीं हैं, एवं यह आवश्यक नहीं कि उसका निर्णीत रूप सत्य हो, यद्यपि वह उसे सत्य समझ रहा हो। इसी सिद्धांत के आधार पर जैनियों के 'स्याद्वाद' का प्रारंभ हुआ है। वे हर एक ज्ञान को सात कोटियों में विभक्त करते हैं। वे ये हैं-(१) स्यादस्ति ( संभवतः हो ), (२) स्यान्नास्ति (संभवत: न हो),(३) स्यादस्ति च नास्ति च (संभवतः किसी रूप iho