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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१४९

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, (६८ ) संप्रदाय (आस्तिक वैष्णव ) का प्रचलन किया, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। यद्यपि उनका संप्रदाय शंकराचार्य के संप्रदाय के समान नहीं बढ़ा तो भी उसका अच्छा प्रचार हुआ। रामानुज के समय में ही मध्वाचार्य ने भी द्वैतवाद का प्रचार कर माध्व संप्रदाय जारी किया। उन्होंने सात प्राचीन उपनिपदों, वेदांत- सूत्रों, भगवद्गीता और भागवतपुराण के द्वैत- मध्वाचार्य और प्रतिपादक भाप्य तथा कतिपय स्वतंत्र पुस्तके उनका द्वैतवाद लिखीं। उपर्युक्त सब ग्रंथों का उन्होंने द्वैत- प्रतिपादक भाष्य लिखकर सांख्य और वेदांत को सम्मिलित कर दिया। अपने द्वैत के सब सिद्धांतों का संग्रह उन्होंने 'तत्त्वसंख्यान' नामक ग्रंथ में किया है। उन्होंने ईश्वर, जीव और प्रकृति को पृथक् पृथक माना है। वेदांत संप्रदाय में शंकराचार्य के वे पूरे विरोधी रहे । इस संप्रदाय ने भी दार्शनिक संप्रदाय की अपेक्षा धार्मिक संप्रदाय का रूप ही अधिक पकड़ा। इस तरह हमारे इस निर्दिष्ट काल में वेदांत संप्रदाय का बहुत अधिक विकास हुआ। भिन्न भिन्न आचार्यों ने वेदांत सूत्रों का अपनी अपनी शैली से भाष्य कर कई संप्रदाय चलाए। यद्यपि ये संप्रदाय आज भी विद्यमान हैं तो भी शंकराचार्य के अद्वैतवाद का सबसे अधिक प्रचार है और उसका एक परिणाम यह हुआ कि सभी प्राचीन ग्रंथ एक नए दृष्टि-कोण ( अद्वैतसूचक ) से देखे जाने लगे। माया- वाद के इस सिद्धांत ने साधारण हिंदुओं के, जो पहले ही बौद्ध धर्म के कारण जगत् को मिथ्या माने हुए थे, दिलों में घर कर लिया, जिसका प्रभाव आज तक हिंदुओं के दिलों से नहीं गया । इन छहों दार्शनिक संप्रदायों के अतिरिक्त उस समय कई और संप्रदाय भी विद्यमान थे। चारवाक संप्रदाय भी बहुत प्राचीन है। इसके सूत्रों का कर्ता बृहस्पति प्राचीन काल में हो चुका था। बौद्धों .