, कानूनी साहित्य काव्य, दर्शन, कला-कौशल-संबंधी साहित्य के विकास के अतिरिक्त राजनीति और नियम ( कानून, धर्म ) विषयक साहित्य भी बहुत उन्नत था। राजनीतिक दृष्टि से भारत को पर्याप्त उन्नत देखते हुए कानूनी साहित्य का विकास स्वाभाविक जान पड़ता है। भारत की राजनीतिक उन्नति पर आगे चलकर विचार करेंगे धर्म शब्द बहुत व्यापक है। अँगरेजी के 'रिलिजियन' और 'ला' (Relition and lar) दोनों इसके अंतर्गत हैं। धर्मशास्त्रों में धार्मिक नियम ही नहीं, किंतु राजनीतिक और सामाजिक नियम भी विस्तारपूर्वक लिखे हुए हैं। हमारे निर्दिट समय से पूर्व प्राप- स्तम्ब और बौधायन के सूत्र लिखे जा चुके थे। इसी तरह गीतम और वशिष्ठ के सूत्र भी बन चुके थे। प्राचीन ग्रंथों में से मनुस्मृति के समान किसी ग्रंथ का सम्मान और प्रचार नहीं हुआ। इस पर कई टीकाएँ भी लिखी गई। हमारे समय की टोकायों में मेधातिथि ( नवीं शताब्दी ) और गोविंदराज (ग्यारहवीं सदी ) की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। इस स्मृति का प्रचार भारत में ही नहीं प्रत्युत वर्मा, और वालि द्वीप में भी हुआ था। हमारे समय के आसपास याज्ञवल्क्य स्मृति बनी। इसमें मनु की अपेक्षा अधिक उन्नत पद्धति मिलती है। इसमें तीन विभागाचाराध्याय, व्यवहाराध्याय और प्रायश्चित्ताध्याय-हैं। आचाराध्याय में वर्णाश्रम धर्म, भक्ष्याभक्ष्य विचार, दान, शुद्धि, ग्रहशांति, राजधर्म आदि बातों पर विचार किया गया है। व्यवहाराध्याय में कानून-संबंधी सभी बातों का विस्तृत विवेचन है। इसमें न्यायालय और उसके नियम, अभियोग. गवाही, सफाई, ऋण का लेन देन, व्याज, चत्रवृद्धि व्याज, तमस्सुक आदि, दिव्यसाति, उत्तराधिकार-संबंधी प्रश्न, स्त्री के संपत्ति-संबंधी अधिकार, सीमाविवाद-संबंधी निर्णय, स्वामी और सेवकों तथा जमींदारी और जावा ,
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