पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१८८

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(१३५ ) . कहीं कहीं परिवर्तन कर उन्हें भिन्न भिन्न स्थानों में, कहीं कहीं पर्वतीय चट्टानों, स्तंभों आदि पर खुदवाया। अशोक के समय तक भी प्राकृत भाषा का संस्कृत के साथ निकट का संबंध था। पीछे से उन मापात्रों के विकास के साथ उनमें परस्पर अंतर बढ़ता गया, जिससे देश-भेद के अनुसार उनके अलग अलग नाम स्थिर किए गए, जो ये हैं- मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्र, पैशाची, आवंतिक और अपभ्रंश । मागधी मगध और उसके आसपास के प्रदेशों की जनता की भाषा थी। प्राचीन मागधी अशोक के लेखों में मिलती है उसके पीछे की मागधी का कोई ग्रंथ अब तक उप- साराधी लब्ध नहीं हुआ साधारणत: संस्कृत के नाटकों में छोटे दर्जे के सेवक, धीवर, सिपाही, विदेशी, जैनसाधु और बच्चों आदि से यह भाषा बुलाई जाती है। 'अभिज्ञान शाकुं- तल्ल', 'प्रबोधचंद्रोदय', 'वेणीसंहार' और 'ललितविग्रहराज' यादि में प्रसंगवशात् यह भाषा मिलती है। इस भाषा में भी पीछे से कुछ भेद हो गए, जिनमें मुख्य अर्धमागधी है, जो मागधी और शौरसेनी का मिश्रण होने से ही अर्धमागधी कहलाई। जैनां के प्रागस नासक धर्म ग्रंथ इसी अर्धमागधी में मिलते हैं। 'पउमच- रीय' नामक पुराना जैनकाव्य इसी भाषा में लिखा गया है। राजा उदयन की कथा भी इसी भाषा में है शौरसेनी प्राकृत शूरसेन अथवा मथुरा प्रदेश के आसपास की भाषा थी, और संस्कृत नाटकों में त्रियों तथा विदूपकों के संभाषण में ( गद्य ) 'रत्नावली', 'अभिज्ञान शाकुंतल' शौरसेनी और 'मृच्छकटिक' आदि में उसका प्रयोग मिलता है। इस भापा का कोई स्वतंत्र नाटक नहीं मिलता। दिगंबरी जैनों का बहुत कुछ साहित्य इस भाषा में मिलता है, जिसमें मुख्य ग्रंथ 'पवयनसार' और 'कत्तिकेयानुपेक्या' आदि हैं। .