(१३४ ) शास्त्र' मिलता है। ना-निर्माण (Ship-building ) पर भी 'नौशास्त्र' आदि ग्रंथ मिलते हैं। व्यापार के संबंध में द्रविड़ भाषा में 'वैश्यारपेरूमई' ग्रंथ मिलता है, जिसमें व्यापार-विषयक बहुत सी उपयोगी वातों का विवेचन किया गया है। प्राकृत पहले कहा जा चुका है कि संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत भाषा का हमारे निर्दिष्ट समय में बहुत प्रचार था। इसके भी विद्वानों का राज-दरवारों में समुचित सम्मान होता था। अब यहाँ संक्षेप में प्राकृत साहित्य पर विचार करेंगे। प्राकृत भाषा का साहित्य हमारे निर्दिष्ट समय से पूर्व भी बहुत उन्नति की अवस्था तक पहुँच चुका था। प्राकृत भाषा कई शाखाओं में विभक्त है। ये विभाग प्राय: देश-भेद या काल- प्राकृत साहित्य भेद से हुए थे। महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश का विकास लौकिक अर्थात् उस समय की प्रचलित भाषा में दिए थे, जिसको पुरानी प्राकृत कहना चाहिए। यह भाषा बहुधा संस्कृत का कुछ बिगड़ा हुआ रूप ही थी, जिसे संस्कृत न जाननेवाले लोग बोला करते थे। कई एक विद्वान उसे पाली भाषा भी कहते हैं और लंका, बर्मा, स्याम आदि देशों के हीनयान बौद्धों के धर्मग्रंथ इसी भाषा में लिखे गए । इसका सब से प्राचीन व्याकरण कच्चायन (कात्यायन) नामक विद्वान् ने बनाया था। अशोक की धर्माज्ञाएँ भी उस समय की प्रचलित प्राकृत भाषा में लिखी गई थीं। संभव है, उनकी मूल प्रतियाँ उस समय की राजकीय भाषा में लिखी गई हो, परंतु उसके राज्य के भिन्न भिन्न विभागों में भेजे जाने पर वहाँ के अधिकारियों ने अपने अपने प्रदेश के लोगों के ठीक ठीक समझने के लिये शब्दों में
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