(१४६ ) थी। इसके पढ़ लेने पर विद्यार्थी व्याकरण का पारंगत विद्वान हो जाता था। हुएन्संग ने भी शिक्षाक्रम दिया है। व्याकरगा का पंडित होने के बाद मंत्रविज्ञान, इंतुविद्या और ज्योतिष का अध्ययन कराया जाता है। इसके बाद वैयक की शिक्षा दी जाती है। तत्- पश्चात् न्याय पढ़ाया जाता है और सब से अंत में अध्यात्म विद्या । इत्सिंग लिखता है "प्राचार्य जिन के पश्चात् धर्मकीर्ति ने हेतुविधा को सुधारा और गुणप्रभ ने 'विनयपिटक' के अध्ययन को दुबारा लोक- प्रिय बनाया। यह क्रम केवल उत्कट विद्वान् बनने के लिये था। साधारण विद्यार्थी इस क्रम से अध्ययन नहीं करते थे। वे अपना अभीष्ट विपय पढ़कर अपनासांसारिक कार्य करते थे। धर्मों की शिक्षा भी विशेष रूप से दी जाती थी। यह आश्चर्य की बात है कि वौद्ध विश्वविद्यालयों में बौद्ध धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त हिंदू धर्म के साहित्य की भी पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। शिक्षण-विधि भी बहुत उत्तम थी। हुएन्संग लिखता है कि प्रत्येक विषय के प्रकांड विद्वान् अध्यापक विद्यार्थियों के दिमाग में जबर्दस्ती कोई वात प्रवेश न कर उनके मानसिक विकास की तरफ अधिक ध्यान देते हैं। वे सुस्त विद्यार्थियों को अच्छी तरह पढ़ाते हैं और मंदबुद्धि विद्यार्थियों को तीक्ष्ण बुद्धि कर देते हैं।। विद्वानों में परस्पर शास्त्रार्थ की प्रथा बहुत प्रचलित थी। इससे साधारण जनता को भी बहुत लाभ पहुँचता था। वह बहुत से सिद्धान्तों से परिचित हो जाती थी। यह शिक्षाक्रम प्राय: हमारे संपूर्ण काल तक प्रचलित रहा थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य होता रहा, परंतु इसके मूल सिद्धांतों में
- टाकाकुसु, बुद्धिस्ट प्रैक्टिसेज इन इंडिया; पृ० १६५-८७, पाटर्स आँन
युवनच्चांग्स टूवल्स, जि० १; पृ० १५३-५५ । वाटर्स अनि युवनच्चांगड ट्रेवल्स; जि० १; पृ० १६० । .